"साक्षी होने में बड़े धैर्य की जरूरत"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
साक्षी होने में बड़े धैर्य की जरूरत है। इस धरती पर, साक्षी होने का काम सबसे बड़े धैर्य का काम है। उसके लिए बड़ा धीरज चाहिए। तभी तो-
'कश्चिद्वीरः प्रत्यगात्मानमै क्षदावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन् ।'
कोई धीर पुरुष ही अपनी इन्द्रियों को रोककर साक्षी आत्मा को जानता है; आत्म-साक्षात्कार करता है। वह बहुत ही धीरवान होगा। बुद्धि में बहुत धैर्य हो, तो ही साक्षी होता है, नहीं तो बुद्धि तुरन्त कहती है कि यह बुरा हो रहा है और यह अच्छा हो रहा है। बुद्धि साक्षी रहने ही नहीं देगी। वह तुरन्त कर्त्ता बना देगी या भोक्ता बना देगी। वह व्यवस्था करवाने लगेगी। वह मन को रुकवाएगी। वह कहेगी कि यह क्यों होता है? यह नहीं होना चाहिए। तुमको कोई साक्षी रहने ही नहीं देगा।
साक्षी रहने के लिए जितना तप, बल और धैर्य चाहिए; उतना और कुछ भी नहीं चाहिए। अपने अन्दर हम साक्षी बने रहें। किसी क्रिया से हमें न तो ग्लानि हो और न सुख ही मिले। हम किसी भी क्रिया से न जुड़ें। पुण्य से और पाप से भी न जुड़ें। अन्तःकरण के किसी भी संकल्प से न जुड़ना और अपने को साक्षी जाने रहना; बड़े धैर्य का काम है। नहीं तो बुद्धि, पुरानी आदत से साक्षी को साक्षी नहीं रहने देती। वह तुरन्त ही कर्ता या भोक्ता बना देती
बुद्धि में धैर्य हो, तो ही बुद्धि में साक्षीपन टिकता है; नहीं तो तुरन्त ही घबराहट, बौखलाहट और सुख-दुःख उत्पन्न हो जाता है। आप साक्षी नहीं रह पाते। एक दिन आप सारी कोशिश इसी बात में लगा देना कि आप साक्षी रहें। कुछ भी हो जाए, आप साक्षी ही रहेंगे। आप न तो बुरा कहेंगे और न अच्छा ही कहेंगे। आप न तो बुरा मानेंगे और न अच्छा ही मानेंगे; क्योंकि, द्रष्टा का काम तो केवल देखते रहना, जानते रहना और प्रकाशते रहना ही है। फिर भी, यह कोई खेल नहीं है। यह बड़ा मुश्किल काम है।
एक दिन के प्रवचन में से यदि आप एक गुण ही धारण कर लें, तो आप मुक्त हो जायेंगे। यदि, पूरे दिन के प्रवचनों में से भी, आप एक बात ही धारण कर लें और कुछ न करें, तो आप मुक्त हो जायेंगे। साक्षी का स्वभाव होता है कि वह बदलता नहीं है। वह सोता नहीं है और किसी से राग-द्वेष भी नहीं करता। साक्षी के लिए न तो कुछ अच्छा ही है और न कुछ बुरा ही है। साक्षी, स्वयं कर्ता भी नहीं होता। साक्षी का अर्थ ही यह होता है कि वह केवल साक्षी है।
इससे निचली स्टेज द्रष्टा की है। अन्तःकरण की वृत्तियों को असंगतापूर्वक याद रखते हुए, स्वरूप को बोधपूर्वक प्रकाशते रहना, साक्षी भाव है। इन्द्रियों के विषयों को और दृश्य जगत् को देखते रहना और अपने को द्रष्टापन में जगाए रखना; यह हमारा निचला ध्यान है। आप इससे शुरुआत कर सकते हैं। आप जब अपनी आँखों से देखें, तब सिर्फ देखते रहें। इससे बड़े लाभ हैं। आप कुछ न सोचें; आँखें खुली रखें और देखते भर रहें।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!
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