"जीवन्मुक्ति : जीवन में ही मोक्ष की प्राप्ति"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
जीवन्मुक्ति का तात्पर्य उस अवस्था से है जब एक साधक इस संसार में रहते हुए ही आत्मसाक्षात्कार कर लेता है और शरीर के रहते हुए भी वह जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है। उपनिषदों में इस अवस्था को सर्वोच्च उपलब्धि माना गया है, जहाँ जीव ब्रह्म के साथ अभिन्नता का अनुभव करता है। यह अवस्था कोई कल्पनालोक नहीं है, अपितु गहन साधना, विवेक और वैराग्य के निरंतर अभ्यास से प्राप्त होने वाली सच्चाई है। जब साधक यह पहचान लेता है कि 'मैं शरीर, मन, बुद्धि नहीं हूँ, अपितु साक्षी रूप आत्मा हूँ', तब ही जीवन्मुक्ति का प्रारंभ होता है। यह ज्ञान आत्मा के स्वभाव को जानने से उत्पन्न होता है, जो नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्त है। उपनिषदों में इस सत्य का उद्घाटन है कि जब आत्मा की पहचान एक क्षण के लिए भी होती है, तो वह सत्य जीवन का आरंभ बन जाती है और इसी जीवन में मोक्ष की उपलब्धि संभव हो जाती है।
विवेकचूडामणि में शंकराचार्य ने स्पष्ट किया है कि केवल शास्त्रपठन, यज्ञ, व्रत या तपस्या मात्र से मुक्ति संभव नहीं है, जब तक कि आत्मस्वरूप का साक्षात ज्ञान न हो। यह ज्ञान तभी संभव है जब साधक में विवेक, वैराग्य, षट्सम्पत्ति और मुक्ति की तीव्र इच्छा हो। आत्मबोध ग्रंथ में भी बताया गया है कि जैसे सूर्य उदय होते ही अंधकार समाप्त हो जाता है, वैसे ही आत्मज्ञान होने पर अज्ञान, मोह और दुःख नष्ट हो जाते हैं। जीवन्मुक्त वही होता है, जो संसार में रहते हुए भी संसार में लिप्त नहीं होता। वह व्यवहार करता है, किन्तु भीतर से साक्षी बना रहता है। न उसे किसी से अपेक्षा होती है, न किसी से विरोध। उसके लिए न कुछ अच्छा है, न बुरा; न लाभ, न हानि; न राग, न द्वेष। वह केवल आत्मा रूप में स्थित रहता है, जो न कोई करता है, न भोगता है।
भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि जो व्यक्ति समदृष्टि, निरहंकार, तृप्त और स्थितप्रज्ञ होता है, वह माया से पार चला जाता है। ऐसे पुरुष के लिए न कर्म का बंधन रहता है और न पुनर्जन्म का भय। वह अपने कर्मों को ईश्वरार्पण की भावना से करता है और परिणामों में रमता नहीं है। यही जीवन में मुक्ति की निशानी है। गीता कहती है कि कर्मों का परित्याग नहीं, अपितु फलासक्ति का त्याग ही मुक्ति की ओर ले जाता है। जब व्यक्ति समत्व योग में स्थित होकर, अपने भीतर की आत्मा को ही एकमात्र सत्य के रूप में जान लेता है, तो वह जीवन्मुक्त हो जाता है। ऐसे पुरुष का मन स्थिर होता है, न वह शोक करता है, न हर्ष। वह सदा आत्मस्वरूप में स्थित रहता है।
ब्रह्मसूत्रों में कहा गया है कि आत्मा ब्रह्म ही है और उसके साक्षात्कार से ही मुक्ति संभव है। यह मुक्ति कहीं बाहर नहीं है, अपितु आत्मा की स्वाभाविक स्थिति है जिसे अज्ञान ने ढक रखा है। जैसे बादलों के हटते ही सूर्य स्वयं प्रकट हो जाता है, वैसे ही अज्ञान के हटते ही आत्मा का स्वरूप प्रकट होता है। जीवन्मुक्ति में साधक का जीवन पूर्णतः बदल जाता है, परंतु बाह्य रूप से वह सामान्य व्यक्ति जैसा ही प्रतीत होता है। वह सभी व्यवहार करता है, परंतु भीतर से अकर्ता और अभोक्ता बना रहता है। उसका मन न तो अतीत की चिंता करता है, न भविष्य की। वह केवल वर्तमान में, आत्मा में स्थित रहता है। उसका कोई व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं रह जाता, क्योंकि उसे यह अनुभव हो चुका होता है कि वह देह नहीं, चैतन्य है।
दृष्टि-दृश्य विवेक में आत्मा और संसार के भेद का विस्तार से विवेचन किया गया है। इसमें बताया गया है कि दृष्टव्य वस्तुएँ नश्वर हैं और देखने वाला आत्मा शाश्वत है। जब साधक इस विवेक से स्थिर हो जाता है, तब वह जानता है कि वह शरीर नहीं, मन नहीं, बुद्धि नहीं, अपितु केवल साक्षी है। यही ज्ञान उसे जीवन्मुक्त बनाता है। वह संसार को देखता है, पर उसमें लिप्त नहीं होता। जैसे जल में कमल रहता है, पर जल से गीला नहीं होता, वैसे ही जीवन्मुक्त भी संसार में रहता है, पर उसमें रमता नहीं। वह हर वस्तु में आत्मा का दर्शन करता है और किसी वस्तु को अपना नहीं मानता। उसके लिए कोई दूसरा नहीं होता, क्योंकि वह सबमें उसी ब्रह्म को देखता है।
जीवन्मुक्ति कोई रहस्यमय या अलौकिक अवस्था नहीं है, बल्कि यह जीवन में सत्य के प्रति पूर्ण समर्पण और ज्ञान का फल है। यह अवस्था साधक के भीतर घटती है, जहाँ वह जानता है कि उसकी सच्ची पहचान क्या है। उपनिषदों, गीता, ब्रह्मसूत्र और अन्य वेदांत ग्रंथों का यही निष्कर्ष है कि आत्मज्ञान ही मुक्ति है और यह मुक्ति इसी जीवन में संभव है। जीवन में जब व्यक्ति अपने भीतर ब्रह्मस्वरूप का अनुभव करता है, जब वह अहंकार और आसक्ति से मुक्त होता है, जब वह न कुछ चाहता है, न कुछ त्यागता है, तब वह जीवन्मुक्त कहलाता है। यह मुक्त अवस्था उसका सहज स्वभाव बन जाती है, और उसके लिए जन्म, मृत्यु, सुख, दुःख केवल देह के स्तर पर घटित घटनाएँ रह जाती हैं। उसका चित्त शुद्ध, स्थिर और प्रसन्न रहता है, क्योंकि वह जान चुका होता है कि वह कोई कर्ता नहीं है, केवल साक्षी है, जो सदा मुक्त है।