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सोमवार, 13 जनवरी 2025

"साक्षी द्रष्टा नहीं"

"साक्षी द्रष्टा नहीं"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

जगत् का पूरा ज्ञान कभी नहीं होता। जीव जगत् का द्रष्टा है। आभास होकर साक्षी विद्यमान रहता है। साक्षी द्रष्टा नहीं है। वह अन्तःकरण के द्वारा ही देखता है। जब हम अन्तःकरण और आभास मानकर देखते हैं; तब तो हम सीमित देखेंगे और अन्तःकरण और आभास यदि ब्रह्म होंगे; तो हम अपने को सर्वत्र तो देखेंगे; पर, सबको कुछ नहीं देखेंगे : जब वहाँ सब ब्रह्म ही है; तो और की कल्पना कैसे होगी? और की कल्पना होगी, तो वह द्रष्टा हो जाएगा; सीमित हो जाएगा। फिर, भेद हो जाएगा। जब भेद होगा; तो अन्तःकरण की मुख्यता से जब देखेगा, तो सीमित देखेगा और ब्रह्म की मुख्यता से जब सोचेगा, तो सब नहीं देखेगा ।

आप लोग वेदान्त की चर्चा सुनते रहे हैं। आपको द्रष्टा और दृश्य में दूरी मालूम पड़ती है। देखने वाले को, दिखने वाला पदार्थ दूर लगता है; यह सबका निजी अनुभव है। जिसे आप देखते हैं, वह आपको अलग लगता है। दिखने वाला, आपको कभी 'मैं' नहीं लगता। आँखों से तुमने देखा, तो तुम उसे कहते हो 'यह है' और जो 'यह है' उसको जानने वाले तुम, अपने को कहते हो 'मैं हूँ' ।

साक्षी और द्रष्टा में इतना ही फर्क है कि साक्षी से साक्षी-भाष्य पदार्थ पृथक् नहीं होते; किन्तु, द्रष्टा से ज्ञात होने वाले पदार्थ पृथक् हुआ करते हैं या पृथक् दिखा करते हैं। यूँ समझो कि साक्षी-भाष्य पदार्थ, जब साक्षी-भाष्य लगते हैं; तब साक्षी से पृथक् नहीं होते; किन्तु, साक्षी-भाष्य पदार्थ, जब इन्द्रिय-भाष्य लगते हैं; तब वे पृथक् मालूम पड़ते हैं।

जब साक्षी से पदार्थ पृथक् लगते हैं, तब समझो कि तुम स्वप्न देख रहे हो। इसी का नाम निन्द्रा है। जब साक्षी से पृथक् कोई पदार्थ नहीं लगता, तब साक्षी मात्र ही सत्य लगता है। पदार्थ की दूरी, भिन्नता और उसकी सत्यता निवृत्त हो जाती है, इसी का नाम जाग्रत है। स्वप्न में, साक्षी से प्रतीत होने वाले पदार्थ जिस समय न तो दूर लगें, न भिन्न लगें, न उनकी अलग सत्ता लगे; तब समझो जग गए और जब साक्षी-भाष्य पदार्थ अलग-अलग लगें, तब समझो कि तुम स्वप्न देख रहे हो। यह सच है।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

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