"विवेक, वैराग्य, षट्सम्पत्ति और मुमुक्षुत्व — ये चारों साधन चतुष्टय की आधारशिला हैं।"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
विवेक, वैराग्य, षट्सम्पत्ति और मुमुक्षुत्व — ये चारों साधन चतुष्टय की आधारशिला हैं, जिनके बिना आत्म-साक्षात्कार की यात्रा आरम्भ नहीं होती। इन गुणों के विकास के लिए व्यावहारिक साधनों की आवश्यकता होती है जो साधक को तात्त्विक रूप से इनका अनुभव कराने में सहायक हों। सबसे पहले विवेक की बात करें तो यह असत्य और सत्य में भेद करने की शक्ति है। इसे विकसित करने के लिए निरंतर आत्मचिंतन और शास्त्रों का अध्ययन आवश्यक है। "नित्य-अनित्य वस्तु विवेकः" — यही विवेक का मूल है। 'विवेकचूडामणि' में शंकराचार्य कहते हैं — “दुर्लभं त्रयमेवैतद् देवानुग्रहहेतुकम्, मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुषसंश्रयः।” अर्थात् यह दुर्लभ है कि मनुष्य जन्म, मुमुक्षुत्व और सद्गुरु का साथ प्राप्त हो। आत्मबोध ग्रंथ में भी शंकराचार्य कहते हैं कि "ब्रह्म सत्यम् जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः।" — इस विवेक को सिद्ध करने के लिए दैनिक आत्मचिंतन, ध्यान और अध्ययन आवश्यक है। 'द्रिग्दृश्य विवेक' के अभ्यास से भी मन को स्थिर करके वस्तु और दृष्टा में भेद करना संभव होता है, जिससे विवेक की तीव्रता बढ़ती है।
वैराग्य का अर्थ है संसारिक वस्तुओं में आसक्ति का अभाव। यह केवल संसार से भागना नहीं, बल्कि उनके वास्तविक स्वरूप को जानकर उनसे विमुख होना है। 'विवेकचूडामणि' में वैराग्य की व्याख्या करते हुए कहा गया है — “तद्वैराग्यं जिहासाया दर्शनश्रवणादिभिः, देहादि ब्रह्मपर्यन्ते ह्यनित्ये भोगवस्तुनि।” अर्थात् देह से लेकर ब्रह्मा-लोक तक समस्त भोगों में अनित्यता का बोध होकर उनके प्रति उदासीनता वैराग्य है। वैराग्य को विकसित करने के लिए मन को बार-बार यह स्मरण कराना चाहिए कि सभी वस्तुएं क्षणिक हैं। 'श्रीमद्भगवद्गीता' में श्रीकृष्ण कहते हैं — “अनित्यं असुखं लोकम् इमं प्राप्य भजस्व माम्।” अर्थात् यह संसार अनित्य और दुःखपूर्ण है, अतः मेरा भजन करो। वैराग्य का व्यावहारिक साधन है प्रतिदिन अपने अनुभवों का निरीक्षण करना, यह जानना कि कोई भी वस्तु स्थायी सुख नहीं देती, जिससे धीरे-धीरे उसमें आसक्ति कम होती जाती है।
षट्सम्पत्ति के अंतर्गत शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा और समाधान — ये छह गुण आते हैं, जो साधक के मन को स्थिर करने में सहायक होते हैं। शंकराचार्य 'विवेकचूडामणि' में लिखते हैं — “शमो मनःसंन्यासः, दमो इन्द्रिय निग्रहः, उपरतिर्नः स्वधर्मे स्थितिः, तितिक्षा दुःखसहनम्, श्रद्धा शास्त्रगुरुवाक्ये विश्वासः, समाधानं चित्तैक्यं।” इन गुणों को विकसित करने के लिए अनुशासन और अभ्यास की आवश्यकता होती है। उदाहरणार्थ, शम के लिए ध्यान और मौन का अभ्यास उपयोगी है, दम के लिए इन्द्रियों पर निग्रह और संयम, उपरति के लिए कर्तव्य में स्थित रहना और बाह्य विषयों में अधिक रुचि न लेना, तितिक्षा के लिए दुःख सहने की आदत डालना, श्रद्धा के लिए गुरु और शास्त्र पर आस्था बनाए रखना, और समाधान के लिए एकाग्रता का विकास आवश्यक है। 'गीता' में अर्जुन को उपदेश देते हुए भगवान कहते हैं — “सहनं सर्वदुःखानां अप्रतीकारपूर्वकम्, चिन्तारहितं चेत्त्वं तितिक्षा परिकीर्तिता।”
मुमुक्षुत्व अर्थात् मुक्ति की तीव्र इच्छा। यह वह अंतःकरण है जो साधक को समस्त सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर केवल आत्म-साक्षात्कार की ओर प्रेरित करता है। शंकराचार्य 'विवेकचूडामणि' में कहते हैं — “मुमुक्षुर्न कर्तव्यं कर्माण्यात्मविवेकिनः, कर्म कुर्याद्द्विधा दृष्ट्या लोकसंरक्षणाय च।” मुमुक्षुत्व का विकास तभी संभव है जब साधक यह समझे कि संसार में कोई भी वस्तु स्थायी सुख नहीं दे सकती। जब बार-बार जन्म, मरण और दुःखों के चक्र से थककर आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को पहचानने को लालायित हो, तब मुमुक्षुत्व का उदय होता है। 'गीता' में भी अर्जुन के विषाद को देखकर श्रीकृष्ण कहते हैं — “तं तथा कृपयाविष्टं अश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्, विषीदन्तं इदं वाक्यम् उवाच मधुसूदनः।” — यह विषाद ही मुमुक्षुत्व का आरंभ है। इसे जाग्रत करने हेतु आत्मा के शुद्ध स्वरूप पर ध्यान, शास्त्रों के सत्य स्वरूप पर विचार तथा मृत्यु और जीवन की अनित्यताओं का स्मरण आवश्यक है।
इन चारों गुणों का व्यावहारिक विकास केवल शास्त्रों को पढ़ने से नहीं होता, बल्कि निरंतर अभ्यास, स्वयं के भीतर निरीक्षण और सतत गुरु-सान्निध्य से होता है। 'ब्रह्म सूत्र' में स्पष्ट कहा गया है — “तत् त्वं असि” — यह महावाक्य केवल वाणी से नहीं, अपितु अनुभूति से जाना जाता है। अनुभूति के लिए मन को तामसिक और राजसिक वृत्तियों से मुक्त करना होगा, जो विवेक और वैराग्य के बिना असंभव है। अभ्यास के रूप में 'नित्य-अनित्य विवेक' का चिंतन, शम और दम का सतत प्रयास, तितिक्षा में कष्टों को स्वीकार करना और मुमुक्षुत्व के लिए आत्मा की पूर्णता का स्मरण — यह सब मार्ग को सरल बनाता है। 'आत्मबोध' में शंकराचार्य लिखते हैं — “अपरोक्षानुभूतिः हि आत्मज्ञानस्य लक्ष्यते।” — इसका आशय है कि आत्मा का अनुभव प्रत्यक्ष ही उसका ज्ञान है, और वह तभी संभव है जब यह गुण पूर्ण विकसित हों।
अंततः, इन चारों साधनों को विकसित करने का सर्वश्रेष्ठ उपाय है आत्मनिष्ठा में रहना, अर्थात् सतत आत्मचिंतन करना। 'द्रिग्दृश्य विवेक' बताता है कि देखने वाला चैतन्य है और देखा गया सब माया है। इस अंतर को अनुभव करने के लिए ध्यान, मौन, ब्रह्मचिन्तन और गुरु के उपदेशों का निरंतर मनन आवश्यक है। जब मन इन गुणों से युक्त होता है, तब शास्त्रार्थ केवल शब्द नहीं रहते — वे अनुभूत सत्य में रूपांतरित हो जाते हैं। तभी आत्मा को अपनी स्वाभाविक मुक्ति का ज्ञान होता है और साधक ब्रह्मरूप में स्थित होता है। यही अद्वैत वेदांत का पथ है — जहां विवेक, वैराग्य, षट्सम्पत्ति और मुमुक्षुत्व एक साथ मिलकर साधक को ब्रह्मज्ञान की ओर ले जाते हैं, और अंततः वह स्वयं ब्रह्मस्वरूप हो जाता है।