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रविवार, 5 जनवरी 2025

"सूक्ष्मातिसूक्ष्म बुद्धि का निर्णय, 'मैं' साक्षी हूँ"

"सूक्ष्मातिसूक्ष्म बुद्धि का निर्णय, 'मैं' साक्षी हूँ"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

'दृश्यते त्वग्यया बुद्धया सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः ।'

सूक्ष्मातिसूक्ष्म बुद्धि के द्वारा ही यह निर्णय कर सकते हो कि 'मैं' साक्षी हूँ। वही बुद्धि, जो सांसारिक है, तुमसे कहती है कि तुम देह हो, तुम कर्ता हो और तुम मर जाओगे। आत्या में ही अनात्माध्यास है और आत्मा में ही आत्मज्ञान है। ये दोनों ही बुद्धि पर ही निर्भर हैं। इसलिए, बुद्धि के बिना न तो आत्मा में बन्धन है और न ही आत्मा में मुक्ति है। अविवेकवती बुद्धि ही आत्मा में बन्धन का आरोप कराती है और विवेकवती बुद्धि आत्मा में बन्धन का खण्डन कर देती है। बन्धन का खण्डन करते साक्षी को, ब्रह्म को, ब्रह्म होने की जरूरत तो है।

भगवान् कृष्ण ने कहा है कि जिस समय इन्द्रियाँ अपना काम करती हैं, उस समय तत्त्ववेत्ता यह देखता है कि 'मैं साक्षी हूँ।' इन्द्रियाँ अपना-अपना काम कर रही हैं। कान सुनते हैं; मुझे पता है। मन चला जाता है; मुझे पता है। शरीर में कुछ होता है; मुझे पता है। परन्तु, मुझे सबका मात्र ज्ञान है। न मैं उनमें शामिल हूँ, उनका कर्ता हूँ और न ही मेरी जिम्मेदारी है। मैं तो केवल प्रकाशक हूँ। यदि, इतने ही विचार का उदय हो जाए कि 'मैं साक्षी हूँ, मैं चैतन्य हूँ, मैं निर्विकल्प हूँ, मैं असंग हूँ, मैं अदृश्य हूँ, मैं निराकार हूँ, मैं ध्यानस्वरूप हूँ; इनसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं, तो आपको इसी समय शान्ति प्राप्त हो सकती है। यदि, भगवान् कृष्ण के वचनों से इस बुद्धि का, इस विचार का, उदय हो जाए; तो आप अभी-अभी शान्ति, समाधि, मुक्ति, अभय और निश्चिन्तता प्राप्त कर सकते हैं।

मेरा किसी से द्वेष नहीं, संघर्ष नहीं, युद्ध नहीं, विरोध नहीं और निरोध भी नहीं है; केवल स्वबोध है। इन्द्रियों और वृत्तियों का न तो निरोध करो और न ही विरोध करो; केवल स्वबोध में, साक्षीपन में, चैतन्यपन में रहो। चंचलता-स्थिरता का क्या करोगे? ये तो सब द्वन्द्व हैं। अच्छा-बुरा और लाभ-हानि द्वन्द्व हैं; तुम तो निर्द्वन्द्व हो। तुम नित्य सत्त्वस्थ हो, नित्य शान्त हो और नित्य मुक्त हो।

तुम अपने को नहीं, विषयों को देखते रहते हो। तुम्हें अपना ख्याल नहीं है। तुम मन के साथ चिपक के राग-द्वेष करते हो। तुम राग-द्वेष छोड़ दो। जो कुछ होता है, उसके तुम मात्र साक्षी हो। तुम असंग, चैतन्य और प्रकाशक हो । इस बात की याद, तुम्हारे कल्याण के लिए है, घर में लड़ने के लिए नहीं है। यह कहकर मनमानी करने के लिए नहीं है कि 'मेरी इन्द्रियों कुछ भी करें, मुझे कुछ फर्क नहीं पड़ता' । वह केवल ध्यान, स्मरण और मुक्ति के लिए है।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

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