"अविद्या" (भाग-1)
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
अब वेदान्त की बात कहेंगे, क्योंकि, जब तक हम वेदान्त न सुनाएँ, तब तक हमें भी सन्तोष नहीं होता। यह सब कुछ तो वेदान्त सुनाने की भूमिका थी। इसके पहले, लोग वेदान्त सुनने के लायक ही नहीं होते। क्यों नहीं होते ?
'ब्रह्मलोक लौं भोग जो, चहै सवन को त्याग।
वेद अर्थ ज्ञाता मुनी, कहत ताहि वैराग ॥'
'धर्म तें बिरति जोग तें ग्याना।
ज्ञान मोच्छप्रद बेद बखाना ।।'
धर्म से विरति यानी वैराग्य होता है और वैराग्य के बाद ही, चित्त समाहित होकर योग को प्राप्त होता है। बिना वैराग्य के योग नहीं होता। इसलिए, 'धर्म तें विरति' और विरति से योग होता है। योग से ज्ञान होता है। जिनके जीवन में धर्म है, उनके जीवन में वैराग्य आ जाएगा। जो धर्म का त्याग करके धन कमाने में, जोड़ने में, मान पाने में लगे हैं, उनका बेड़ा कैसे पार होगा ? वे न तो गुरू देखते है और न चेला देखते हैं। उन्हें तो सम्मान चाहिए। वे यह नहीं देखते कि किससे लेना है, किससे नहीं लेना है। उन्हें तो सबसे लेना ही लेना है।
गुरू से भी लोग मान चाहने लगे हैं। गुरू से भी लोग आशा करते हैं कि गुरुजी उनसे सम्मान से बोलें। जब गुरु ही सम्मान से बोलेंगे, तो फिर तुम्हारे मान का क्या होगा ? एक ही तो जगह थी, जहाँ मान नहीं चाहिए था। दुनियां में सब जगह मान लेते रहते; पर, एक जगह तो मान न लेते। तुम्हारे लिए नरक में भी कहीं जगह है? ऐसे आदमी के, जो गुरू से भी मान चाहेगा, मान की पूर्ति तो परमात्मा भी नहीं कर सकता। इसलिए, मान का त्याग कर दो; स्वार्थ का त्याग कर दो, फिर, अपने जीवन के भीतर झाँककर देखो।
जब वैराग्य हो जाएगा, तब तुम्हें मालूम होगा कि संसार में सुख नहीं है, बल्कि, संसार की चाह से ही दुःख है। जिसको तुम सुख रूप समझ रहे हो, वही दुःख है। योग दर्शन इसे अविद्या कहता है। इसमें, दुःख में सुख-बुद्धि होती है। जो दुःख है वह सुख भासता है। मान, सुख भासता है; जबकि, मान ही दुःख दे रहा है। प्रपञ्च, वैभव, दुःख है, किन्तु, सुख भासता है।
व्यक्ति की अनात्मा में आत्म-बुद्धि हो गई है। अनात्मा में, जो 'मैं' नहीं हूँ, वह 'मैं' भासता है, जो 'मैं' हूँ, वह 'मैं' नहीं लगता। यह अविद्या की ही कृपा है। इसलिए, अनात्मा में आत्मबुद्धि; दुःख में सुख बुद्धि और अशुचि में शुचि बुद्धि है। जो अपवित्र हैं, उनमें पवित्रता भासती है। कामना के कारण स्त्री आदि में सुख भासने लगता है। उन अंगों में, जिनमें गन्दगी भरी है, उनमें अपवित्रता का अहसास नहीं होता ।
काम, अपवित्रता भासने ही नहीं देता, इसलिए, अशुचि में शुचि बुद्धि है। यह अविद्या की ही लीला है। अनित्य में नित्य बुद्धि है। असत् में सत बुद्धि है। जो रहेगा नहीं, उसके रखने में ही व्यक्ति लगा है। उसकी समझ में नहीं आता कि यह रहेगा ही नहीं, तो फिर क्यों मेहनत करूँ। जो होगा नहीं; जो कभी पूरा नहीं हो सकता; उस काम को करने में ही लगा है। वह, वहाँ कुआँ खोदता है; जहाँ पानी निकलने वाला नहीं है। उसे, इतना भी तो विवेक नहीं है और ब्रह्मज्ञानी बना फिरता है। जो मन को ही नहीं समझ सके, क्या वे ब्रह्म को समझेंगे ?
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!
शेष दूसरे भाग में
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