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रविवार, 16 मार्च 2025

"वेदान्त का उद्देश्य"

"वेदान्त का उद्देश्य"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

वेदान्त तुमको गुमराह करने की विद्या नहीं है। अपने कल्याण के लिए इसका इस्तेमाल करना चाहिए। इस ब्रह्मविद्या का सहारा, बुराई करने के लिए नहीं लेना चाहिए। शस्त्र वही है। वही शस्त्र अपनी रक्षा के लिए होता है और वही शस्त्र डाका डालने और चोरी करने में प्रयोग करने के लिए होता है। जिन रिवाल्वरों, पिस्तोलों और बन्दूकों का इस्तेमाल डकैत डाका डालने के लिए करते हैं, उन्हीं का इस्तेमाल, लोग अपनी जान और माल बचाने के लिए भी करते हैं। यही वेदान्त, आपके धन, माल और जीवन की रक्षा भी करता है और यही वेदान्त दूसरों का धन और माल लूटने के काम भी आता है। यह भोग की सामग्री भी जुटा देता है।

प्रवचनों का एक ही उद्देश्य या सार है कि हम आत्मनिष्ठ हों। हम अनात्मा के आकर्षण से छुटाकरा पा जाएँ अथवा अनात्म वस्तुओं के परिवर्तन के दुःख से छूट जाएँ।

इसी को दूसरे शब्दों में इस तरह भी कह सकते हैं कि हम अपनी इन्द्रियों, मन और बुद्धि के द्वारा किसी के बन्धन में न रहें। गुलामी का अन्त, क्रमशः होता है। यह देह वस्तुओं के आधीन है। यदि, वस्तुएँ कम-से-कम इस्तेमाल करनी पड़ें, तो यह भी हमारी एक आजादी है। लेकिन, यह पूरी आजादी नहीं है ।

यह भी एक आजादी है कि हम पदार्थों के आधीन कम हों। लोग दस कपड़े रखते हैं. तो हम दो कपड़ों में ही गुजारा कर लें। लोग दिन-भर खाते हैं, हम दो बार ही खाएँ। इसीलिए, आप ऐसे लोगों को आदर से देखते हैं, जो आप से कम खाते हैं और आप से कम पहनते हैं। जो लोग आपसे कम खाते हैं, उनको आप त्यागी और संयमी कहते हैं। शारीरिक स्तर पर भी पदार्थों का कम उपयोग करना, त्याग भी है, संयम भी है और स्वामित्व भी है। क्योंकि, किसी-न-किसी रूप में भूख पर नियन्त्रण किया, तो एक वक्त खाते हैं। किसी-न-किसी तरीके से अपरिग्रही है और श्रृंगारप्रिय नहीं है; तो साधारण वस्तुओं से ही गुजर कर लेते हैं।

निश्चित रूप से ही, बाहर का व्यवहार भीतर के विवेक पर निर्भर करता है। उपरोक्त त्याग भी अच्छा त्याग है। इसी तरीके से ब्रह्मचर्य भी एक तप है। क्यों तप है? इसलिए कि आपने सुख के आकर्षण को छोड़ा है। लोग पहनने के जरा-से सुख के लिए, कपड़ों का ढेर लगा लेते हैं। अपने रहने की जरा-सी सुविधा के लिए बहुत पैसा खर्च करते हैं। यह बुरा नहीं है। खूब खचों; लेकिन, कभी यह भी सोचो कि आप अपनी लेट्रिन और रहने की जगह के लिए लाखों रुपये खर्च करते हैं; जबकि आप साधारण जगह से भी गुजारा कर सकते है।

हम कम वस्तुओं का उपयोग करें, यह भी हमारा एक तप है। यह हमारा त्याग है और त्याग में संयम आवश्यक है; क्योंकि, इन्द्रियों के संयम के बिना, कोई त्यागी हो ही नहीं सकता । यदि, कोई दिखावा करे, तो बात दूसरी है। लेकिन, यदि दिखावा नहीं है; तो कम वस्तुओं का प्रयोग भी त्याग है, तप है और संयम है। आपके सामने खाने को रखा है। बहुत-सा खाना रखा है। आप स्वयं संयम करें। जितने से आपका गुजारा हो जाता हो, उतना ही रखें; बाकी किसी और को दे दें। यह नहीं कि परोसने वाला निकले सबको देने के लिए और आप औरों की परवाह न करके, अधिक-से-अधिक परसवा लें।

इन्द्रियों के उपभोग की वस्तुओं में अधिक आसक्त न होना और इन्द्रियों के विषयों में अधिक लोलुप न होना भी, हमारा एक स्वामित्व है। इससे यह तात्पर्य नहीं है कि हमें कुछ दिखाई ही न दे या सुनाई ही न दे। आपके पड़ौस में कहीं रास या गाना हो रहा है। आप उसका आनन्द ले रहे हैं; लेकिन, आपके घर में लोग भूखे बैठे हैं। आपको उनकी परवाह नहीं है। आप अपने मन के और कानों के सुख के लिए घर वालों की परवाह नहीं करते । यह असंयम है। कुल मिलाकर, पदार्थों का विवेकपूर्वक कम प्रयोग करें; तो यह त्याग है, तप है और संयम है। 

किसी भी इन्द्रिय के विषय का अधिक लोलुपता से सेवन न करना; उसके लिए अधिक आकर्षित न होना; संयम है। लेकिन, कान हैं, तो आवाज तो आएगी ही, उससे कोई नुकसान नहीं है। कुल मिलाकर हम एक ही बात कहना चाहते हैं कि जैसे तत्त्वज्ञान से आदमी पूर्ण मुक्तता प्राप्त करता है, उसी प्रकार से संयम से भी सापेक्ष मुक्ति मिलती है; निरपेक्ष नहीं। मुक्ति तुलना में मिलती है। किसी को तुलना में तुम स्वामी होते हो । सन्त-महात्माओं को लोग स्वामी कहते हैं। तुम्हारी इन्द्रियाँ जितनी स्वतन्त्र और मनमुखी हैं; उतनी सन्तों की नहीं है। इसलिए, आप उन्हें स्वामी कह सकते हैं।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

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