"आत्मा और परमात्मा की एकता को जानना"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड एक गूढ़ रहस्य की भाँति हमारे सामने उपस्थित है, जिसमें आत्मा और परमात्मा की एकता को जानना ही वास्तविक ज्ञान है। लेकिन इस एकता की अनुभूति तब तक सम्भव नहीं जब तक अहंकार का अतिक्रमण न किया जाए। अहंकार, जिसे 'अहं भाव' भी कहते हैं, जीव को उसके सच्चे स्वरूप से विलग कर देता है और उसे शरीर, मन और बुद्धि के साथ तादात्म्य करा देता है। उपनिषदों में बार-बार यह बात कही गई है कि आत्मा सर्वत्र व्याप्त है, नित्य, शुद्ध और निर्विकार है; किंतु जब तक व्यक्ति "मैं" और "मेरा" की भावना से ग्रसित रहता है, तब तक उसे इस परम सत्य का अनुभव नहीं हो सकता। आत्मा के स्वरूप को न जानने के कारण ही यह मिथ्या अहंकार उत्पन्न होता है, जो संसार के बंधनों का मूल कारण है।
विवेकचूड़ामणि में शंकराचार्य ने स्पष्ट कहा है कि अहंकार का विनाश ही मोक्ष का द्वार खोलता है। जब तक व्यक्ति अपने को देह, इन्द्रियों, या मन-बुद्धि के साथ जोड़ता है, तब तक वह संसार में उलझा रहता है। ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि हम यह विवेक उत्पन्न करें कि क्या शाश्वत है और क्या असत्य। आत्मा न जन्म लेती है, न मरती है, वह शुद्ध चैतन्य है। परंतु जब आत्मा को 'अहं' के पर्दे से देखा जाता है, तब वही चैतन्य सीमित प्रतीत होता है। इस सीमितता से ही द्वैत का जन्म होता है। द्वैत के रहते अद्वैत की अनुभूति असम्भव है, और यही अहंकार सबसे बड़ा द्वैत है, जिसे पार करना ही आत्मज्ञान की दिशा में पहला और अनिवार्य कदम है।
आत्मबोध ग्रन्थ में यह स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया गया है कि आत्मा कोई क्रियात्मक तत्व नहीं है, वह केवल साक्षी है। लेकिन जीव जब अपने को कर्ता समझने लगता है, तब अहंकार उत्पन्न होता है और वही बंधन का कारण बनता है। जब यह समझ विकसित होती है कि मैं न कर्ता हूँ, न भोक्ता, तब अहंकार स्वतः ढह जाता है। यह समझ केवल शास्त्राध्ययन से नहीं आती, बल्कि निरंतर अभ्यास, ध्यान, वैराग्य और विवेक के माध्यम से आती है। आत्मा को जानने का अर्थ है, उस स्थिति में स्थित होना जहाँ कोई भेद नहीं होता—न मैं, न तू, न यह संसार। गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि जो समत्व में स्थित है, वह योगी है; और समत्व में स्थित होना तभी संभव है जब अहंकार विलीन हो जाए और केवल आत्मा का साक्षात्कार शेष रहे।
दृष्टि-दृश्य विवेक में आत्मा को देखने की एक सूक्ष्म दृष्टि प्रदान की गई है। वहां यह स्पष्ट किया गया है कि देखने वाला, देखे जाने वाले से भिन्न होता है। शरीर, मन, बुद्धि—all are seen—वे दृश्य हैं; और आत्मा, जो इन्हें देख रही है, वह द्रष्टा है। जब व्यक्ति अपने को दृश्य मान लेता है, तभी अहंकार उत्पन्न होता है। लेकिन जब वह यह पहचान लेता है कि वह द्रष्टा है, और सब कुछ दृश्य है, तब 'मैं' की भावना का अंत होता है। यह द्रष्टा चैतन्य, साक्षी, निर्विकल्प और अद्वितीय है। ब्रह्मसूत्र भी बार-बार इस बात पर बल देते हैं कि ब्रह्म और आत्मा अभिन्न हैं, किन्तु यह अभिन्नता अनुभव करने के लिए 'अहं' की समस्त परतों को हटाना अनिवार्य है।
इस अहंकार से मुक्त होने की प्रक्रिया सरल नहीं है। यह जीवन भर की साधना, तप, और निरन्तर आत्मपरीक्षण की माँग करती है। लेकिन जो इस मार्ग पर अडिग रहता है, जो सतत आत्मचिन्तन करता है, जो गुरु की कृपा और शास्त्रों की सहायता से 'स्व' की पहचान करता है, वही वास्तविक मुक्ति को प्राप्त करता है। जब "मैं" समाप्त होता है, तभी "वह" प्रकट होता है—और "वह" कोई अन्य नहीं, बल्कि स्वयं ब्रह्म ही है। तब सब भेद मिट जाते हैं, द्वैत समाप्त हो जाता है, और जो शेष रहता है वह केवल एक अखंड, अव्यक्त, शुद्ध चैतन्य है। यही अद्वैत है, यही मोक्ष है, और यही वह अनुभव है जहाँ अहंकार का लोप और आत्मा की पूर्णता एक साथ प्रकट होती है।
इस प्रकार, उपनिषदों, गीता, ब्रह्मसूत्रों, आत्मबोध, दृष्टि-दृश्य विवेक और विवेकचूड़ामणि सभी एक स्वर में यही उद्घोष करते हैं कि जब तक अहंकार बना रहता है, तब तक ब्रह्मज्ञान एक कल्पना मात्र है। अहंकार के अतिक्रमण से ही आत्मा और ब्रह्म की एकता का प्रत्यक्ष अनुभव होता है। यह अनुभव न तो इन्द्रियों से जाना जा सकता है, न ही तर्क से; यह केवल आत्मा में आत्मा के द्वारा ही जाना जाता है। इसलिए आत्मानुभूति का मार्ग, अहंकार के त्याग का मार्ग है—जहाँ न कोई भोगता है, न कोई कर्ता, केवल एक चैतन्य सत्ता है, जो सबमें व्याप्त है, किन्तु किसी से बंधी नहीं। यही परम सत्य है, यही वेदांत का सार है।