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स्वयं (आत्मा) के अतिरिक्त बाहर कुछ भी नहीं है, यह दृढ़ विचार ही ज्ञान है! इसी ज्ञान की खोज में सारा विश्व अपने अपने साधनों और योग्यताओं के अनुसार चल रहा है! सृष्टि में ऐसा कोई भी प्राणी नही है जिसको स्वयं (अपने आप) से प्रेम न हो! अपने आपका ही प्रेम जब कभी संसार में दिखाई देता है तो हम उस पर मुग्ध हो जाते हैं। जब तक हमें अपने स्वरूप का बोध नहीं होता है तभी तक अपने से अतिरिक्त बाहरी संसार में कुछ सार/रस अनुभव होता है! तभी प्राणी भटकता है और संसार में अटकता है! उस समय यह ज्ञान होना अति आवश्यक है कि जिस की खोज में वह बाहर भटक रहा है वह अपने अन्दर ही विद्धमान है, अर्थात जिस को देखने के लिए हम कई तरह के साधनों में उलझे हुए हैं "वह" अन्दर से सब को देख रहा है!
सारांश यह है कि मेरा ज्योति स्वरूप ही सभी देश, काल व परिस्थितियों में सब प्राणियों में समान भाव से विद्धमान है! जहाँ "वह" नहीं वहाँ कुछ भी नहीं और जहाँ कुछ भी नहीं वहाँ भी "वह" ही है! उसके कारण ही सब कुछ है और उसी में सब कुछ है और वह "मैं हूँ"! सोऽहम् अथवा शिवोऽहम् !
कर्म, भक्ति और ज्ञान की परिभाषाओं व भाषा के भेद के कारण वाक्यों में चाहे भिन्नता प्रतीत होती है परन्तु सभी का लक्ष्य एक ही है और वह है "दुःख की निवृत्ति और अक्षय सुख की प्राप्ति" है यही वेदान्त का लक्ष्य है जो केवल अपने आप को जानने या आत्मा की अभिन्नता के बोध द्वारा ही जिसकी प्राप्ति होती है और यह कार्य केवल साधक ही कर सकता है! जिससे मानव मात्र उस परम शान्ति का अनुभव कर सकता है इसके अतिरिक्त मानव जीवन की कोई विशेषता नही है!
इसलिए वेद-शास्त्रों में मानव शरीर को दुर्लभ कहा गया है!
"दुर्लभो मानुषो देहो देहिनां क्षणभङ्गुरः।"
गुरूवाणी के अनुसार "भई परापति मानुख देहुरीआ। गोबिंद मिलण की इह तेरी बरीआ।।"
आदि शंकराचार्य विवेक चूड़ामणि में कहते हैं-
दुर्लभं त्रयमेवैतत् देवानुग्रहहेतुकम्। मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुषसंश्रय:॥
अर्थात इस संसार में तीन चीजें ही दुर्लभ हैं जो हमें ईश्वर की कृपा से मिलती हैं! पहली है "मनुष्य का शरीर" दूसरी "मोक्ष की इच्छा" तीसरी " महापुरुषों (ब्रम्हज्ञानी) सन्तों की संगति(आश्रय)"
भौतिकवादी या आधुनिक वैज्ञानिक भी यही मानते हैं कि "Human body is the crescent of all Creation's/Bodies.
ॐ शांति शांति शांति