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पूज्य श्री गुरुदेव कहते हैं। आत्मज्ञान आनन्द का एक अथाह समुद्र है जिसमें जिज्ञासु, मुमुक्षु, ज्ञानी, तत्ववेत्ता, भक्त, साधक व योगी निरंतर डूबे रहते हैं और ज्ञान, विवेक वा भक्ति रूपी अमूल्य अलौकिक रत्न प्राप्त करते है। वह उस परम सत्य की अपरोक्षानुभूति भी करते है जो सब चराचर (जड व चेतन) प्राणियों में समभाव से सर्वत्र स्थित है। लेकिन इम अद्वितीय अनुभव के लिए मनुष्य को धैर्य, श्रद्धा, विवेक व तातीक्षा की आवश्यकता होती है। जो हमें शास्त्रों व गुरु द्वारा निर्देशित साधना प्रणाली का पूरी सत्यनिष्ठा व ईमानदारी से पालन करने पर प्राप्त होती है।
साधना पथ पर चलने वाले कम गम्भीर व धैर्यहीन लोग कुछ अलौकिक अनभूतियों व चमत्कारों से प्रभावित होकर सिद्धियों में उलझ जाते है और कुछ अपरिपक्व लोग साधना पथ की कठिनाइयों व बाधाओं से घबरा कर साधना या भक्ति मार्ग को छोड़ देते हैं और संसार को ही सत्य मानने लगते हैं। इस तरह के लोगों के जीवन का उद्देश्य "खाओ, पिओ और मौज करो" है यह लोग आत्म पथ के साधकों को मूर्ख, पागल व मन्दबुद्धि मानते है और अपना जीवन, साधन, समय व धन फिजूल के काल्पनिक वस्तुओं की प्राप्ति के लिए बर्बाद कर रहे हैं!
करोड़ों-अरबों में कोई एक भाग्यशाली मनुष्य ही इस सत्य को अनुग्रहित कर पाता है कि "मैं कौन हूँ" और देश काल परिच्छेद से रहित और अभिन्न सृष्टि का अधिष्ठान व्यापक तत्व क्या है? ऐसे में तत्वज्ञानी श्रोत्रिय ब्रम्हनिष्ठ सद्गुरू ही इस संसार के छिपे परम् सत्य और ब्रह्म व आत्मा की एकता का बोध करवा कर जिज्ञासु शिष्य की "पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनम्" की अटूट श्रृंखला का उच्छेदन कर उसे भाव सागर से पार उतार देता है!
यही गुरु और ज्ञान की विशेषता तथा शिष्य का सौभाग्य है कि उस परम् सत्य को पा लेने या जान लेने के बाद फिर कुछ पाना वा करना शेष नही रहता।
भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं:-
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते।।3.17।।
ॐ शांति शांति शांति !!