15. मैंने पिंगला (वेश्या) से वैराग्य एवं भक्ति की शिक्षा ग्रहण की इसे मैं तुम्हें विस्तार से बताता हूँ।
हे राजन, पिंगला से मैंने वैराग्य सीखा और जाना कि इच्छाओं और अपेक्षाओं का त्याग सच्चे सुख का मार्ग है। पिंगला मिथिला की एक वेश्या थी, जो भौतिक सुख और धन की आशा में ग्राहकों की प्रतीक्षा करती थी। लेकिन एक रात, उसकी सारी प्रतीक्षाएं असफल रहीं। पूरी रात किसी ग्राहक का न आना उसे गहरे आत्मचिंतन में ले गया।
पिंगला ने सोचा, "मैं किसकी प्रतीक्षा कर रही हूं, और क्यों?" उसने महसूस किया कि उसकी सारी परेशानियों और दुःख की जड़ उसकी इच्छाएं और आशाएं हैं। इस विचार ने उसे आत्मज्ञान तक पहुंचाया, और उसने कहा, "आशा ही परमं दुःखं, नैराश्यं परमं सुखं।" उसने अपनी सांसारिक इच्छाओं को त्यागकर भगवत भक्ति को अपनाया।
इस वैराग्य ने उसके जीवन को बदल दिया। अब वह मोह-माया से मुक्त होकर आत्मिक शांति और संतोष का अनुभव करने लगी।
हे राजन मैंने इस से यह सीखा की इच्छाएं हमें दुःख देती हैं, जबकि त्याग से शांति मिलती है। पिंगला का अनुभव हमें प्रेरित करता है कि भौतिक सुखों के पीछे भागने के बजाय भगवान की भक्ति और आत्मचिंतन का मार्ग अपनाएं। यही स्थायी सुख का स्रोत है।
पिंगला ने यह समझा कि सांसारिक इच्छाएं दुःख का कारण हैं और भक्ति से सच्चा सुख मिलता है।
16. मैंने कुरर (गिद्ध) से यह शिक्षा ग्रहण की है कि प्राणी को चाहिए कि वो संग्रह की प्रवृत्ति त्यागें, नहीं तो उसका हाल वैसा ही होगा जैसे गिद्ध अधिक भोजन लेकर उड़ता है, लेकिन अन्य पक्षी उसे मारकर उसका भोजन छीन लेते हैं।
17. मैंने बालक (बच्चा) से यह शिक्षा ग्रहण की है कि चिंता-मुक्त और निश्छल जीवन कैसे जीया जाता है। बच्चा हमेशा आनंदित रहता है क्योंकि वह मोह-माया से मुक्त होता है।
18. मैंने कुमारी (अविवाहित कन्या) से यह शिक्षा ग्रहण की है कि सादगी, एकांत, और ध्यान में बाधा से बचना चाहिए। जैसे दो या अधिक कंगन आपस में टकराकर आवाज करते हैं, वैसे ही अधिक लोगों के साथ रहने से विवाद और अशांति हो सकती है। आत्मसाधना और ईश्वर की भक्ति में ध्यान लगाने के लिए एकांत और सरल जीवन जरूरी है।
19. मैंने सर्प (सांप) से यह शिक्षा ग्रहण की है कि प्राणी को एकांतवास और सावधानी रखनी चाहिए जैसे सर्प अकेले रहता है और दूसरों के बिल में रहता है और अपना कोई स्थाई स्थान नहीं बनाता। ऐसे ही साधक को संपत्ति के प्रपंच में नही पड़ना चाहिए
20. मैंने तीर बनाने वाले से यह शिक्षा ग्रहण की है कि एकाग्रता का कितना महत्व है। एकाग्रता से तीर बनाने वाला अपने काम में इतना ध्यानमग्न था कि उसे राजा की सवारी के आने का पता नहीं चला।
21. मैंने मकड़ी से यह शिक्षा ग्रहण की है कि सृजन और संहार कैसे होता है जैसे मकड़ी अपने जाले को खुद बनाती और खुद ही नष्ट कर देती है, जैसे ब्रह्मांड का सृजन और विनाश होता है। ऐसे ही प्रक्रिया चलती रहती है।
22. मैंने भ्रमर (भौंरा) से यह शिक्षा ग्रहण की है जैसे भौंरा फूलों का रस लेता है लेकिन अगर अधिक लालच करे, तो फंस जाता है। ऐसे ही प्राणी को हमेशा उचित साधनों का चयन करना चाहिए
23. मैंने (हाथी) से यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे हाथी अपनी वासना के कारण शिकारी द्वारा पकड़ा जाता है।
यदि प्राणी भी कामवासना पर नियंत्रण न रखे तो उस का हाल हाथी जैसे ही होगा।
24. मैंने (भृंगी कीट) से यह शिक्षा ग्रहण की है कि यदि प्राणी स्नेह से, द्वेष से अथवा भय से भी जानबूझकर एकाग्ररूप से अपना मन किसी में लगा दे तो उसे उसी वस्तु का स्वरूप प्राप्त हो जाता है।
इस प्रकार मैंने इतने गुरुओं से ये शिक्षाएं ग्रहण की है। अब मैंने अपने शरीर से जो सीखा है वह भी तुम्हें बताता हूँ, सावधान होकर सुनो।
देहो गुरुर्मं विरक्तिविवेकहेतु-
रबिभ्रात् स्म सत्त्वनिधानं सत्तर्त्युदर्कम्।
तत्त्वन्यानेन विमृषामि यथा तथापि
पारक्यमित्यवसितो विचारम्यसङ्ग: ॥11/9/ 25
यह शरीर भी मेरा गुरु है। क्योंकि यह मुझे विवेक और वैराग्य की शिक्षा देता है मरना और जीना इसके साथ लगा रहता है। इस शरीर को पकड रखने का फल यह है कि दुःख पर दुःख भोगते जाओ। यद्यपि इस शरीर से तत्व विचार करने में भी सहायता मिलती है तथापि मैं इसे अपना कभी नहीं समझता, सर्वदा यही निश्चय रखना है कि एक न एक दिन इसे सियार-कुते खा जायेंगे इमलिए मैं असंग होकर विचरता है। आसक्तियों से मुक्त होकर समदर्शी हो जाये।
पूज्य गुरुदेव कहते हैं कि अवधूत दत्तात्रेय जी के 24 (चौबीस) गुरुओं का प्रसंग हमारे लिए साधना पथ का प्रकाश स्तम्भ है जिसके आलोक में हम आपने जीवन के परम सत्य को सहज ही प्राप्त कर सकते है। प्राकृति रूपी पाठशाला से हम अपनी रुचि, योग्यता और स्वभाव के अनुसार पाठ (ज्ञान) का चयन और अनुसरण कर अपने जीवन को सार्थक बना सकते हैं।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!
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