"गुरुदेव ने लखाया आनन्द रूप अपना"
ॐ!! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
प्रत्येक साधक की कुछ दिन ध्यान साधना करने के बाद यह जानने की इच्छा होती हैं कि मेरी कुछ ‘आध्यात्मिक प्रगति’ हुई या नहीं ? क्या मैं साधना के नाम पर कहीं भटक तो नहीं गया ? आपका अपना मन कितना शुद्ध और पवित्र हुआ है , यही आपकी आध्यात्मिक स्थिति को दर्शाता हैं ! अब आप अपनी आध्यात्मिक प्रगति जानने की इच्छा से अपने मन का आत्म निरीक्षण’ करें!
(1) दूषित मन 👉 यह मन का सबसे निचला स्तर हैं! इस स्तर पर साधक सभी के दोष ही खोजते रहता हैं ! दूसरा, सदैव सबका बुरा कैसे किया जाए सदैव इसी का विचार करते रहता है ! दूसरों की प्रगति से सदैव ‘ईर्ष्या’ करते रहता हैं ! नित्य नए-नए उपाय खोजते रहता हैं कि किस उपाय से हम दुसरे को नुकसान पहुँचा सकते हैं ! सदैव नकारात्मक बातों से, नकारात्मक घटनाओं से , नकारात्मक व्यक्तिओं से यह ‘मन या चित्त’ सदैव भरा ही रहता हैं !
(2) भूतकाल में खोया मन 👉 यह मन सदैव भूतकाल में ही खोया हुआ रहता हैं ! वह सदैव भूतकाल के व्यक्ति और भूतकाल की घटनाओं का चिंतन करता रहता हैं ! जो भूतकाल की घटनाओं में रहने का इतना आदी हो जाता हैं कि उसे भूतकाल में रहने में आनंद का अनुभव होता हैं ! भूतकाल में खोये रहने से वर्त्तमान काल खराब हो जाता हैं !
(3) सामान्य मन 👉 यह मन एक सामान्य प्रकृत्ति का होता हैं ! इस चित्त में अच्छे , बुरे , दोनों ही प्रकार के विचार आते रहते हैं ! यह जब अच्छी संगत में होता हैं , तो इसे अच्छे विचार आते हैं और जब यह बुरी संगत में रहता हैं तब उसे बुरे विचार आते हैं ! यानी इस चित्त के अपने कोई पक्का विचार नहीं होता है ! जैसी संगत मिलती हैं , वैसे ही हो जाता हैं ! वास्तव में वैचारिक प्रदुषण के कारण नकारात्मक विचारों के प्रभाव में ही यह ‘सामान्य चित्त’ ही आता हैं !
(4) निर्विकार चित्त( मन)👉 निरंतर साधना के पश्चात मन में बुरे विचार नहीं आते हैं ! यदि परिस्थितिवश अगर चित्त कहीं गया तो भी वह क्षणिक भर ही होता हैं ! जिस प्रकार से बरसात के दिनों में एक पानी का बबुला एक क्षण ही रहता हैं , बाद में फुट जाता हैं , वैसे ही इनका चित्त कहीं भी गया तो एक क्षण के लिए जाता हैं , बाद में फिर अपने स्थान पर आ जाता हैं ! यह उच्च आध्यात्मिक स्थिति हैं। इस चित्त में सदैव विश्व के सभी प्राणिमात्र के लिए सदैव सद्भावना ही भरी रहती हैं ! ऐसे चित्तवाले मनुष्य ‘संत प्रकृत्ति’ के होते हैं और सदैव अपनी ही मस्ती में मस्त और साधना में लीन रहते हैं !
यह चित्त की सर्वोत्तम दशा हैं ! इसीलिए ऐसे चित्त को कल्याणकारी चित्त कहते हैं ! यह चित्त जो भी संकल्प करता हैं , वह पूर्ण हो जाता हैं ! यह सदैव सबके मंगल की ही कामनाएँ करता हैं ! ऐसा चित्त शुद्ध संकल्पों वाला होता हैं ! ऐसे साधक को गुरुदेव स्वरूप का बोध करवाते हुए कहते हैं कि हे शिष्य, तू बदलने वाला मन नहीं बल्कि मन का साक्षी चेतन आत्मा है। तुझ में कोई विकार नहीं है। तू शुद्ध, बुद्ध और मुक्त स्वरुप है। गुरुदेव का ऐसा पावन उपदेश हृदय में धारण कर शिष्य भाव विभोर होकर गाता है। "गुरुदेव ने लखाया आंनद रुप अपना, संसार स्वप्न आनन्द रूप अपना"
अब आप अपना स्वयं का ‘अवलोकन’ करें और जानें कि आपकी आध्यात्मिक स्थिति कैसी हैं ! आत्मा की पवित्रता का और चित्त हा बड़ा ही निकट का संबंध होता हैं ! अब तो यह समझ लो की ‘चित्तरूपी धन’ लेकर हम जन्मे हैं और जीवनभर हमारे आसपास सभी ‘चित्तचोर’ जो चित्त को दूषित करने वाले ही रहते हैं , उनके बीच रहकर भी हमें अपने चित्तरूपी धन को संभालना हैं !
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!
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