"साक्षीपन का ज्ञान, स्वप्न का दुश्मन" (भाग-2)
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
एक 'मैं' में एक ज्ञान ही रहेगा। 'मैं' ही चाहे ब्रह्म होऊँ और 'मैं' ही चाहे साक्षी होऊँ। इसलिए, 'मैं' का जगत् से विरोध नहीं था। यदि 'मैं' का जगत् से विरोध होता, तो मैं' में जगत् दिखता ही नहीं। 'मैं' के रहते जगत् दिखा कि नहीं? 'मैं' के रहते ही जन्म-मरण दिखा कि नहीं? इसलिए, 'मैं' जगत् का विरोधी नहीं है; किन्तु, 'मैं' के स्वरूप का ज्ञान, 'मैं' की पहचान, जगत् की पहचान भी होती है। इसलिए, यदि जगत् से छूटना है; यदि जगत् तुम्हें चुभता है; मौत चुभती है; जन्म चुभता है; भेद चुभता है; भेद दुःख देता है; यदि तुम दुःख अनुभव कर रहे हो, तो यह दुःख भी तुम्हारे आश्रित ही जीता है। दुःख को जन्म देने वाले और दुःख को पालने वाले तुम्हीं हो। जन्म की पुष्टि तुम्हारे ही आश्रित है।
तुम्हीं को अपने आपको जानना है। तुम जब अपने को जानोगे, तब ता अपने को जन्म-मृत्यु से रहित पाओगे। इसलिए, 'मैं' अकेला ही, 'मैं' स्वयं ही, चाहे अपने को अधिष्ठान जानूँ और चाहे अध्यस्त जानूँ। अधिष्ठान को बिना जाने, जो अध्यस्त देखेगा; उसको अध्यस्त सच्चा लगेगा। रस्सी को ठीक से जाने बिना जो देखेगा, उसे वह साँप लगेगी और जो उसको ठीक से देखेगा उसे वह रस्सी लगेगी। इसी तरह से, जिसे 'मैं' की ठीक पहचान है, वह तो ब्रह्म है, अजन्मा है, अविनाशी और निराकार है और जिसे 'मैं' की ठीक पहचान नहीं है, वह उसे जन्मने वाला और मरने वाला देखेगा। इसलिए-
'मोह निसां सबु सोवनिहारा।
देखिअ सपन अनेक प्रकारा।
एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी।
परमारथी प्रपञ्च बियोगी'।
'परमार्थी 'अर्थात् परम अर्थी, परमार्थ को जानने वाला, परम सत्य को जानने वाला, अधिष्ठान को जानने वाला ही जागता है। उपनिषद् ने यही कहा है कि जो अपनी आत्मा को सबमें देखता है अर्थात् जो अपने आपको अधिष्ठान देखता है; जो अपने आपको ही सारी सृष्टि का अधिष्ठान देखता है; जो अपने-आपको सारी सृष्टि का आधार देखता है, वह ज्ञानी है।
हमारे गुरुदेव एक ही मन्त्र सुनाया करते थे-देख ! देख ! देख ! देखने वाले को देख ! आप आँखों से देखे हुए को देखते हैं। मैं कहता हूँ कि आँखों से देखे हुए को न देख ।
आँखों में कोई देखता है: आँखो से कोई देखता है। उसे देख । आँखों में देखने वाला मौजूद है। कानों में सुनने वाला मौजूद है। त्वचा में छने वाला मौजूद है। इसी तरह से मन में भी कोई मौजूद है।
आप यह बताओ कि इन्द्रियों के तल पर जो जानने वाला है, क्या वही जानने वाला मन के तल पर नहीं है? क्या आँखों से जो देखता है. वही मन में नहीं है? तो मन में है, क्या वहीं बुद्धि में नहीं है? जो अभी जगत् देख रहा है, क्या वही भजन में मौजूद नहीं रहता? क्या वही स्वप्नों में मौजूद नहीं रहता ? कम से कम उसे तो देखो।
मैं इन आंखों में मौजूद हूँ और देख रहा हूँ। मैं ही ध्यान में और भजन में मौजूद रहता हूँ। जब सब कल्पनाएँ शान्त होकर समाधि होती है; चित्त जब शान्त हो जाता है, उस ध्यान की गहराई में भी में ही मौजूद रहता हूँ। परिवर्तन इन्द्रियों के स्तर पर, मन के स्तर पर बुद्धि के स्तर पर, विचारों के स्तर पर और संकल्पों के स्तर पर होता है। साधनों के स्तर पर भी परिवर्तन होता गया, लेकिन, मैं हर स्तर पर मौजूद रहा।
अपनी मौजूदगी को ठीक से जानने वाला व्यक्ति आत्मवित् हो जाता है। अपनी मौजूदगी जानने के लिए यह जरूरी नहीं है कि आप समाधि लगाएँ। यह ध्यान रखो कि यदि आप देख रहे हैं, तो इस समय आप आँखों में मौजूद हैं। यदि सुन रहे हैं, तो कानों में आप ही मौजूद हैं। यदि आप भजन कर रहे हैं, नाम जप रहे हैं, तो भजन में और जप में आप ही मौजूद हैं। यदि आप मन से ध्यान कर रहे हैं, तो उस ध्यान के ध्याता के रूप में आप ही मौजूद हैं। यदि, ज्ञान प्राप्त कर रहे हों, तो ज्ञाता के रूप में आप ही मौजूद हैं। यदि आप शान्त है, तो शान्ति के ज्ञाता के साक्षी के रूप में आप ही विद्यमान है।
आप यह बतलायें कि आप गैर-हाजिर कब हैं? जिसकी उपस्थिति में सभी प्रतीतियाँ होती रहती हैं, उस साक्षी को क्यों भूले हुए हो? इस साक्षी का विस्मरण रहना, इस साक्षी के साक्षीपन में जाग्रत न होना और साक्षी की उपस्थिति में अन्य को देखते रहना ही स्वप्न है। मिट्टी की उपस्थिति में घड़े को और मकान को तो देखना, लेकिन, मिट्टी का ख्याल ही न आना, कितना बड़ा अन्धेर है । पानी की उपस्थिति में लहरें तो गिनना; लेकिन, पानी की चर्चा तक न करना, अन्धेर नहीं तो क्या है?
जिस चेतन की उपस्थिति में शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और समाधि की प्रतीति होती है; उस चेतन के प्रति ही आप जाग्रत नहीं हैं।
'तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ।'
जिसके भासने से ही सब भासता है; जिसकी चैतन्यता से ही सबकी प्रतीति होती है; उस चेतन के प्रति आप जागरूक नहीं हैं; उस चेतन के प्रति आप सचेत नहीं हैं। उस चेतन की सत्ता लेकर ही बुद्धि और इन्द्रियाँ कुछ कर पाती हैं।
दो ज्ञान हैं। दो दीपक हैं। एक तो ईंधन के सहारे जलता है और दूसरा बिना तेल और बत्ती के ही जलता है। 'दीया बलै अगम का'। अगम का दिया जलता है; गम का नहीं। गम का दिया तो तेल बत्ती से दिखता है और अगम का दिया दिखता ही नहीं है। उसके बारे में थोड़ा दिमाग से सोचना पड़ेगा। यदि अगम का दिया न होता, तो कहीं कभी दिये न जलते, यदि अगम की आग न होती, तो कहीं भी आग नहीं जला पाते । अगम की आग से ही सब आगें जलती हैं। जितने जीव और जितने आभास-ज्ञान पैदा होते हैं और बुझते हैं, ये सब गम के दिये, तेल बत्ती के दिये हैं; लेकिन, एक दिया है; जो बिना तेल और बत्ती के ही जलता है; वह है आत्मा, चेतन और साक्षी का दिया, जो न जलता है और न बुझता है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!
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