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गुरुवार, 2 जनवरी 2025

"साक्षीपन का ज्ञान, स्वप्न का दुश्मन" (भाग-1)


"साक्षीपन का ज्ञान, स्वप्न का दुश्मन" (भाग-1)

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

प्रकट, प्रकट का विरोधी है। प्रकट, प्रकट में भेद है। प्रकट, प्रकट और तरह के हैं। अप्रकट तो एक ही तरह का है। इसीलिए, प्रकट चिदाभास, स्वप्नवत्, प्रकट चिदाभास जाग्रत ।

प्रकट यदि जाग्रत होगा तो स्वप्न नहीं होगा। प्रकट यदि स्वप्न होगा. तो जाग्रत नहीं होगा। यदि प्रकट सुषुप्ति होगी यदि वर्तमान में चैतन्य में सुषुप्ति रहेगी, तो स्वप्न नहीं रह पायेगा। इनकी आपस में दुश्मनी है। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की दश्मनी है; लेकिन, साक्षी का दुश्मन कौन है? साक्षी किनका दुश्मन है? साक्षी दुश्मन नहीं है; लेकिन, साक्षीज्ञान जरूर दुश्मन है।

मिट्टी घड़े की दुश्मन नहीं है, लेकिन, मिट्टी का ज्ञान घड़े का दुश्मन है। यह बात समझ में नहीं आई होगी। आप स्वप्न के दुश्मन नहीं हैं, लेकिन, आपको अपनी पहचान हो जाए, यह जरूर स्वप्न का दुश्मन है। अपनी पहचान से, अपने में दिखने वाला सत्य झूठा हो जाता है। रस्सी साँप की दुश्मन नहीं है। यदि रस्सी में दिखने वाले साँप की रस्सी दुश्मन होती, तो रस्सी में साँप दिखता ही कैसे ? रस्सी में दिखने वाले साँप की रस्सी दुश्मन नहीं है, बल्कि, रस्सी का ज्ञान जरूर सर्प का दुश्मन है। यदि रस्सी का ज्ञान हो जाए, तो रस्सी का साँप मरेगा। इसलिए साक्षी स्वप्नों का दुश्मन नहीं है। साक्षीपन का ज्ञान, स्वप्न का दुश्मन है। परमात्मा सृष्टि का दुश्मन नहीं है। परमात्मा का ज्ञान, सृष्टि का दुश्मन है। इसीलिए-

'जेहि जानें जग जाइ हेराई,
जेहि रहते जग जाय हेराई। 
जेहि रहते जग देय दिखाई, 
तेहि जाने जग जाय हेराई।'

जिसके रहते जगत् दिखता है; उसी के जानने से जगत् का बाध हो जाता है। एकाध चौपाई बीच-बीच में हम भी बना लेते हैं और यह वेद सम्मत चौपाई है।

'कवि न होऊँ नहिं चतुर कहावउं, मति अनुरूप राम गुण गावउं।'

हम राम के गुण गा रहे हैं; राम की कथा कर रहे हैं। हम राम ही की कथा कर रहे है। इसलिए, जब हम राम को जानेंगे; जब हम सत्य को जानेंगे, जब हम अधिष्ठान को जानेंगे; तभी अध्यात, अध्यस्त लगेगा। अधिष्ठान के रहते जगत् तो रहता है। अधिष्ठान किसी का दुश्मन नहीं होगा। अधिष्ठान जगत् का दुश्मन नहीं है।

हमारे गुरुदेव जब मन्त्र देते थे, तब यह भी बोला करते थे-

'ॐ जगदाधारसर्वाधिष्ठान धात्रये नमः ।'

वे शिष्य से ऐसे बुलवाते थे। 'जगत् के आधार, अधिष्ठान को हम नमस्कार करते हैं।" यदि उसका ज्ञान ही न होव, तो नमस्कार क्या करोगे? सारे जगत् का जो अधिष्ठान है, वह किसी का दुश्मन नहीं है, लेकिन, जगत् के अधिष्ठान की पहचान हो जाए, तो जगत् अध्यस्त हो जाता है। जगत् के अधिष्ठान के न जानने से 'जग देय दिखाई'।

'जेहि जाने जग जाइ हेराई।
तेहि बिन जाने जग देय दिखाई' ।।

उसके बिना जाने जगत् लगता है। उसी के जानने से लगता है कि जगत् नहीं है।

'स्वकाले सत्यवद्धाति, प्रबोधेऽसत्यवद्भवेत् ।'

अज्ञान काल में सोए हुए को जगत् और स्वप्न 'सत्यवत्', सत्य की तरह दिखते हैं। 'प्रबोधे असतवत् भवेत' जगत् असत्य नहीं हो जाता, वह असतवत्, असत्य की तरह लगता है। अज्ञान काल में वह सतवत् लगता था; अब वह असतवत् लगता है। असत्य तो तब होता; जब पहले सत् होता। रस्सी में दिखने वाला साँप सतवत् होता है और जानने वाले के लिए असतवत् होता है। वह गया-सा लगने लगता है। साँप खो गया लगने लगता है कि खो जाता है? क्या रस्सी का साँप, न जानने के समय फिर आ जाता है? साँप कही चला जाता है? क्या वह खतम हो जाता है? तुम्हारी बुद्धि को रस्सी का ज्ञान न होने से तुम्हारी बुद्धि साँप देखती थी, और तुम्हारी बुद्धि रस्सी देखती है, तो साँप नहीं देखती; क्योंकि एक अन्तःकरण में, एक आधार पर दो ज्ञान नहीं हो सकते ।

एक ही वस्तु को एक समय में तुम दो रूपों में नहीं देख सकते। उसी वस्तु को तुम या तो साँप देखोगे या उसे तुम रस्सी देखोगे। एक ही पदार्थ में, एक ही जगह, एक ही आश्रय में, दो चीजें नहीं देख सकते। अन्य जगह देख सकते हैं। यहाँ साँप और वहाँ रस्सी देख सकते हो। पर, उसी काल में उसी को साँप और उसी को रस्सी, दो चीजें एक साथ नहीं देख सकते। मैं साक्षी हूँ मैं चैतन्य हूँ और मैं जन्मा हूँ, मैं अविनाशी हूँ और मैं नाशी हूँ। ये दो ज्ञान 'मैं 'आधार में नहीं हो सकते। यहाँ 'मैं' आधार है, जैसे वहाँ रस्सी आधार है। रस्सी के आधार में सर्प दिखता है; लेकिन, जिनको सर्प, सर्प, दिखता है, उनको रस्सी नहीं दिखती और जिनको रस्सी दिखती है, उनको सर्प नहीं दिखता।

इसी तरह से, 'मैं' जिनको ब्रह्म लगता है; 'मैं' जिनको निर्विकार लगता है, 'मैं' जिनको अधिष्ठान लगता है, उनको 'मैं' जन्मने और मरने वाला व्यक्ति नहीं लगता। जिनको 'मैं' व्यक्ति लगता है, सीमित लगता है; आदमी लगता है: उत्पन्न होने वाला लगता है, विकारी और जन्मने-मरने वाला लगता है, एक देह में स्थिता है। हाल होने वाला जीव है लगता है उनको 'मैं' ब्रह्म हूँ, नहीं लगेगा। इसलिए, एक अन्तःकरण में दो ज्ञान, एक 'मैं' में दो ज्ञान नहीं रहेंगे।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

शेष दुसरे भाग में

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