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शुक्रवार, 31 जनवरी 2025

"अपने को साक्षी जानने वाला ही योगी"

"अपने को साक्षी जानने वाला ही योगी"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

इस जाग्रत में; शरीर, इन्द्रियाँ और संसार की प्रतीति हो रही है। जो चैतन्य तत्त्व है; स्वप्न में जो सत्य है; वही चैतन्यता तो जाग्रत में है। जब जाग्रत और स्वप्न, सभी विचारों का सुषुप्ति में विलय हो जाता है; तब निद्रा होती है। उस निद्रावस्था में भी, वही चैतन्य तत्त्व कर्तापन का अहं बाँध लेगा। तू सीमित हो जाएगा। तू कर मत, तू देख। तेरे में घड़ा बना हैं तेरे में घड़ा रहता है और तेरे में घड़ा फूटता है। तू यह क्यों कहता है कि 'में फूटता हूँ'? यह क्यों कहता है कि 'मैं पैदा होता हूँ' ? तू जान ले कि मिट्टी हूँ। फिर कह कि 'मैं ही घड़ा बनकर पैदा हुई हूँ, मैं ही घड़ा बनकर जी रही हूँ और मैं ही घड़ा बनकर फूटती हूँ'। पर, मैं ज्यों की त्यों हूँ। यही योग है। निद्रा का अधिष्ठान है। एक ही चेतन के आश्रित निद्रा; उसी चेतन के आश्रित स्वप्न; उसी चेतन के आश्रित जाग्रत; अर्थात् बुद्धि की तीनों अवस्थाएँ उसी एक चेतन के आश्रित हैं। इसलिए-

'जाग्रत स्वप्न सुषुप्ती हैं बुद्धि की अवस्था। 
हूँ बुद्धि से परे मैं याते सदा शिवोऽहम् ।।'

मै बुद्धि से परे हूँ। जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति से परे हूँ। इसलिए, मैं योगी हूँ। मैं स्वभाव से मुक्त हूँ। इसलिए, मुझे योगी होना नहीं है; मैं योगी हूँ। जो अन्तःकरण मानकर सोचते हैं, उन्हें योगी होना है। जो अपने को साक्षी जानते हैं, वे योगी हैं। जो आत्मवेत्ता है, वह महान् योगी है। क्योंकि, उसके स्वभाव से सब हो रहा है; उसको कोई फर्क नहीं पड़ता । फर्क लगता भी है, तो बुद्धि में लगता है। चेतन में कुछ फर्क नहीं होता। चेतन में कोई परिवर्तन नहीं होता। वही चेतन तत्त्व तुम हो। लेकिन, यह बात तुम ध्यान में भी नहीं लाते । न सुनके लाओ और न ध्यान में लाओ। ध्यान में भी शिकायत करते हो कि मन नहीं लगता। जबकि हम रोज कहते हैं कि मन को लगाना ही नहीं है। हमें मन से क्या लेना-देना ?

हम घड़े को कहते हैं कि 'तू मिट्टी है।' पगला कहता है कि घड़ा हिलता क्यों है ? हम कहते हैं 'तू अविनाशी है'; तो कहता है कि घड़ा फूट क्यों गया ? हम कहते हैं 'तू पैदा नहीं हुआ; तो कहता है कि कुम्हार उसे बना देते हैं। हम कहते हैं तत्त्व की बात; वह सुनता है घड़े की बात, कल्पित की बात। घट-बुद्धि से सुनने पर, हमारी बात उसके पल्ले नहीं पड़ती । हम कहेंगे 'तू सदा है'; वह कहेगा फिर मर क्यों जाते हैं? वह घड़ा बनकर सोचता है। उसको यही समझ में आता है कि 'हम फूट जाएँगे, हम नहीं रहेंगे, हम बनाए गये हैं, हम छोटे हैं'। वह मिट्टी है, यह उसे सुनाई नहीं देता और जब तक उसे यह सुनाई नहीं देगा कि वह मिट्टी है; तब तक सारी साधना दो कौड़ी की है।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

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