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शनिवार, 1 फ़रवरी 2025

"जीव के कल्पितपन को हटाना"



"जीव के कल्पितपन को हटाना"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

देखो ! जब हम बुद्धि में अहंपना करके, जीव में 'मैं पन' करके; जीव को टिका भी लेते हैं; आत्मलीन भी कर लेते हैं; चैतन्य को जीवत्व में स्थित कर लेते हैं, तो हम जीव है हम बुद्धि हैं, हम वृत्तियाँ है। ऐसा मानकर हम जब स्थित होते हैं, तो अज्ञान निवृत्त नहीं हुआ। इसलिए, कई लोग यह कहते हैं कि समाधि से भी अज्ञान की निवृत्ति नहीं होती। समाधि से भी भ्रम की निवृत्ति नहीं होती।

एक बात और बता दूँ-

'मल विछेप जाके नहीं, किंतु एक अज्ञान। 
हृवै चव साधन सहित नर, सो अधिकृत मतिमान ।।'

आवरण क्या चीज है, जिसकी निवृत्ति के लिए वेदान्त कहता है? उसकी भी थोड़ी चर्चा कर ली जाए। देखो ! चन्द्रमा पानी में प्रतिबिम्बित होता है। प्रतिबिम्ब को अपनी सत्ता मालूम पड़ती है। प्रतिबिम्ब को लगता है कि 'मैं' हूँ। मैं चन्द्रमा के लिए नहीं कह रहा। मैं प्रतिबिम्ब के लिए कहता हूँ। चन्द्रमा तो है, उसको कल्पना भी नहीं है और जिसको कल्पना है कि 'मैं' हूँ वह केवल प्रतिविम्ब है। प्रतिबिम्ब को अपने होने का ख्याल है कि 'मैं' हूँ। केवल इतना ही ख्याल नहीं है, यह ख्याल भी है कि 'मैं' हिलता हूँ, 'मैं' मैला हूँ, 'मैं' परेशान हूँ, 'मैं' बहुत दुःखी हूँ, 'मैं' मर जाऊँगा। प्रतिबिम्ब में ऐसे ख्याल भी है।

प्रतिबिम्ब में ऐसे ख्याल क्यों है? क्योकि पानी हिलता है; पानी गन्दा है। यदि पानी की गन्दगी हटा भी लो, तो पानी जब हिलेगा, तो चंचलता तो तब भी रहेगी। यदि तुम पानी की गन्दगी मिटा दो, पानी की चंचलता भी मिटा दो, तो चन्द्रमा स्थिर हो जाएगा; लेकिन, रहेगा अभी भी प्रतिबिम्व ही। वह प्रतिविम्ब ही है। अभी उसे बिम्ब का अभेद ज्ञान नहीं हुआ। इसलिए, चन्द्रमा का प्रतिविम्व स्थिर होने पर, सुख, आनन्द और स्थिरता तो अनुभव कर रहा है; किन्तु, अभी चन्द्रमा के प्रतिविम्ब का कल्पितपना और विम्ब का सत्यपना उसे स्पष्ट नहीं हुआ।

जीव के कल्पितपने को ही हटाना है। जीव कल्पित है। समाधि भी कल्पित है। जाग्रत ही कल्पित नहीं, स्वप्न ही कल्पित नहीं, सुषुप्ति ही कल्पित नहीं, बल्कि समाधि भी कल्पित है। सत्य तो साक्षी परमात्मा ही है। जब हम समाधि को सत्य नहीं, साथी को सत्य मानिगेः तब हम हमेशा एक जैसा अनुभव करेंगे। हमारे में परिवर्तन नहीं होता। जब हम समाधि को स्वरूप मानेंगे; तो हम हमेशा एक जैसे रहेंगे, इसकी कल्पना भी नहीं कर सकेंगे। जैसे शरीर को 'मैं' मानने वाला यह नहीं सोच सकता कि वह अविनाशी है। शरीर को 'मैं' मानने वाला यह विचार नहीं कर सकता कि 'मैं' अविनाशी हूँ। इसी तरह बुद्धि और शरीर को, बुद्धि और समाधि को, आभास को 'मैं' मानने वाला 'मैं', सदा ऐसा ही रहूँगा, समाधि लगा के भी सदा 'मैं' ऐसा ही रहूँगा, ऐसा नहीं हो सकेगा।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

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