"साक्षी भाव क्या है?"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
जब ध्यान करोगे, तो शून्य-शून्य सा, खाली-खाली सा, कुछ नहीं है, ऐसा महसूस होगा। कई लोग घबरा जाते हैं। वे कहते हैं कि वहाँ तो कुछ भी नहीं रहता । अरे ! कुछ नहीं रहेगा वहाँ, तो वहाँ मौत भी नहीं रहेगी। यह बहुत ही अच्छा हुआ। क्योंकि, कुछ होगा, तो परिवर्तन होगा; कुछ होगा, तो मौत होगी: कुछ होगा, तो विकार होगा। जहाँ कुछ भी नहीं होगा, वहाँ विकार और मौत भी तो नहीं होगी। इससे आगे फिर एक कदम और उठा देना। वहाँ कुछ नहीं रहता, कुछ नहीं होता कहने के बजाए यह कहो कि वहाँ आपके सिवाय और कुछ नहीं होता। वहाँ साक्षी के सिवाय और कुछ भी नहीं होता। मुझ चैतन्य के सिवाय और कोई नहीं होता।
कठोपनिषद् का एक मन्त्र है-
'यदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह।
बुद्धिश्च न विचेष्टति तामाहुः परमां गतिम् ।।'
जहाँ मन के सहित पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ ठहर जाती हैं और बुद्धि भी विषयों का स्मरण और चिन्तन नहीं करती; वही परमगति है। जहाँ पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ मन के साथ ठहर जाती हैं और बुद्धि भी जगत् का चिन्तन नहीं करती; वहाँ जो अचिन्त्य है, साक्षी है, चैतन्य है, वह स्पष्ट हो जाता है। वैसे तो जानकारों के लिए, जब बुद्धि चेष्टा भी करती हो, तब भी जो सावधान हैं, उन्हें मालूम रहता है। यदि आप एक बार जान लें, तो फिर जरूरत नहीं पड़ती।
एक बार आँखों को दिखाकर आप कोई चीज कहीं रख देते हैं, तो आपको यह स्मरण रहता है कि वह चीज आपने अमुक जगह रखी है। आँखें बन्द रहने पर भी आपको मालूम है कि वह चीज कहाँ रखी है। ऐसा क्यों है? क्योंकि, वह चीज बुद्धि में पहुँच गई। इसी तरह से, एक बार जब निर्णय हो जाए कि 'मैं' कौन हूँ? तो फिर ज्यादा दिमाग न लगाओ।
देखो ! साक्षी, चेतन वहीं था। उसे कहीं से लाना नहीं है। इसलिए, आत्मस्मरण, अनात्मस्मरण से बहुत ही आसान है। अनात्मस्मरण के लिए वृत्ति, विषय, स्मृति, संस्कार आदि चीजों की जरूरत पड़ती है; पर, साक्षीपने के अनुभव के लिए कहीं कुछ नहीं करना पड़ता। बल्कि, यदि कुछ करोगे और सोचोगे, तो शायद तुम अपने को जान ही न पाओ। अपना विस्मरण ही कर दो। लेकिन, यदि तुम्हें एक बार दृढ़ बोध हो जाए, तो फिर आपका साक्षीपना बुढ़ापे में भी नहीं जाएगा। यदि तुम्हें यह स्मरण है कि तुम साक्षी हो, तो तुम बूढ़े नहीं हो, तुम जवान नहीं हो, तुम विकारी नहीं हो। फिर, तुम्हें मिला क्या और गया क्या ? तुम लुटे क्या और तुम्हें मिला क्या ? साक्षी को क्या मिला और साक्षी का क्या गया ?
यदि तुम साक्षी हो तो -
'जागें लाभु न हानि कछु, तिमि प्रपंच जियँ जोइ।'
यह संसार ऐसा है कि यहाँ जागे हुए आदमी को लाभ-हानि नहीं होती । जो स्वरूप को जान गया, उसको कोई लाभ-हानि नहीं है। इस स्थिति का ही आनन्द लो। इस स्थिति को हम परमानन्द, मुक्तानन्द, दिव्यानन्द, अखण्डानन्द, सर्वानन्द, निर्विषयानन्द, निर्विकल्पानन्द और निर्द्वन्द्वानन्द कहते हैं। यहाँ आनन्द ही आनन्द है। लेकिन, यह आनन्द किसको है? क्या ये आनन्द केवल साधुओं के ही नाम है? जो ज्ञानी हुए हैं उनके ही नाम है ?
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!
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