"साक्षी की सत्ता"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
साक्षी को छोड़ के मन कहीं नहीं जा सकता। वह कहीं जाता है, तो साक्षी की सत्ता से, साक्षी के सामने ही जाता है। यदि, तुम मन पर ध्यान न दो, तो फिर देखो कि वह कहाँ जाता है? तुम मन पर अपना ध्यान लगाए हो, इसीलिए तो वह जाता है। तुम्हारी ही सत्ता से जाता है। तुम मन की उपेक्षा कर दो। तुम्हें मन से क्या लेना-देना है? हम तो अपने आप हैं हम साक्षी हैं और हमें मन से कुछ भी लेना-देना नहीं है। हम चेतन हैं, हम आत्मा हैं, हम आनन्द से हैं और कुछ नहीं चाहिए। हमें मन से क्या लेना-देना? मन झख मार के तुम्हारे पास आएगा। वह तुम्हारे सामने घुटने टेक देगा।
मैं आपको सोने की पहचान करने का ढंग बतलाता हूँ। हमने सोने की एक नथनी बनवाई। नथनी को तोड़ दिया और अँगूठी बनवा ली। तो उस समय जो सत्य था और इस समय जो सत्य है, वह तो सोना ही है। जो उस समय सत्य था और इस समय नहीं है, वह है नथनी । जो इस समय सत्य है, उस समय नहीं था; वह है अँगूठी। जो इस समय सत्य है, उस समय नहीं था; वह गहना है। जो तब सत्य था, अब नहीं है; वह भी गहना है और जो तब भी था और अब भी है, वह सोना है।
नथनी ही गहना बन गई थी और नथनी ही अँगूठी बन गई थी। नथनी खतम हो गई, तब अँगूठी बनी। क्या ये दोनों एक ही हैं? दोनों अलग-अलग हैं। इसी तरह, वह स्वप्न और यह स्वप्न दोनों एक नहीं हैं; एक जैसे तो हैं। मान लो नथनी तोड़कर फिर नथनी बना दें, तो क्या दूसरी नथनी वही होगी? नथनी तोड़ी और फिर नथनी बना दी, तो दोनों में यह वाली सच है कि वह वाली ? सच क्या है? सच तो सोना ही है। एक समय पहली नथनी सच थी। फिर, दूसरी नथनी सच हो गई। लेकिन, दोनों स्थितियों में सोना ही सच है।
रात में जो स्वप्न देखा था, वह रात का स्वप्न और यह जाग्रत का स्वप्न है। यह उस समय न था; वह इस समय नहीं है और 'मैं' जो उस समय था, वही इस समय भी है। जो इस समय हो और जो उस समय भी हो, उतने ही अंश को सच मानो; बाकी को स्वप्न जानो । जैसे नथनी तोड़कर अँगूठी बनाई गई, तो अभी अँगूठी की बात मत करो । नथनी तोड़ने पर जो बचा है, वह क्या है और अँगूठी तोड़कर जो बचेगा, उसकी क्या पहचान है ? वह दोनों स्थितियों में सोना ही है। ऐसे ही, जो स्वप्न टूट जाने पर इस समय बच गया और जो जाग्रत में भी बचा है, वह साक्षी ही है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!
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