"सतत चेतनता की अनुभूति" (भाग-2)
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
एक शब्द लिया और एक जगह टिक गए। सुरति को या तो शरीर के भीतर किसो स्थान पर टिका दिया या श्वास पर लगा दिया था मन्त्र पर लगा दिया। धीरे-धीरे, सुरति स्थिर होते-होते, भीतर से फैलनी शुरू होगी। फिर, कभी तो लगेगा कि सारा जगत् ही आपको भास रहा है या जगत् न भासे, पर, सारे जगत् का अनुभव, सारे जगत् की प्रतीति, सारे जगत् का बोध, आपको ही हो रहा है। सारे जगत् की याद भी आप ही को है। जगत् देखा किसने था ? आँखों के सहारे आपने देखा था। यदि, आपने न देखा होता, तो याद किसको होती ?
मन्त्र तुमने सुना था। कान तो माध्यम थे। रामनाम या प्रभु का नाम या कोई भी नाम या सोऽहम् मन्त्र या ऊँ कानों के द्वारा किसने सुना था ? जब कान बन्द कर लिए; जबान बन्द कर ली और सब देह भी भूल गए, फिर भी, वहाँ श्वास में या बहुत गहरे में मन्त्र चल रहा है। उस मन्त्र को कौन चला रहा है ? जिसने वह मन्त्र सुना था। इन्द्रियाँ न होने पर भी, मन्त्र चल रहा है। इसीलिए, गुरू का मन्त्र एक बार सुनने के लिए कान चाहिए; एक बार जबान पर चढ़ाने के लिए जबान चाहिए; बाद में तो मन्त्र को न जबान चाहिए और न कान ही चाहिए। अन्त में तो देह भी नहीं चाहिए; केवल उसकी सुरति चाहिए।
यही सुरति, जपते-जपते अपने स्वामी को पा जाती है। यही जीव, ब्रह्म को पा जाता है। यह जीव ही, बह्म से एकत्व करता है। यह सुरति ही, स्वामी को उपलब्ध करती है। सुरति ही जब बाहर को जाती है; तो स्वामी से, चैतन्य आत्मा से निकलने वाला आभास, वृत्ति से बनी ज्ञान धारा, प्रकाश धारा, सुरति धारा, संसार की ओर जाती है; तो लोग कहते हैं कि यह धारा है। और जब धारा उलटती है, तो हो जाती है राधा। एक को कहते हैं धारा और ऐसे उलट के आने वाली को कहते हैं राधा। जब धारा राधा हो जाती है, तो स्वामी तो वहाँ मौजूद थे ही; तो राधा-स्वामी हो गए। राधा का और स्वामी का मिलन हो जाता है। राधा लौट कर, स्वामी को पा जाती है।
गंगा गंगोत्री से उत्पन्न हुई है और जाती सागर की ओर है। लेकिन, हम क्या कहते हैं कि उलटी गंगा बहाओ। गंगा जहाँ से आई है, उधर को ही लौटाओ । यद्यपि, यह गंगा नहीं लौटती है, पर, जिस गंगा की मैं बात कहता हूँ, उस गंगा को उलटी बहाए बिना, काम बनना ही नहीं है। वह गंगा तो उलटी ही बहानी पड़ेगी। जहाँ से आई है गंगा, उधर को ही बहानी पड़ेगी। उतरी गंगा क्या है ? गंगोत्री का मतलब क्या होता है ? गंगा उतरी और सा बहते-बहते सागर में गई। ये तो सब गंगाएँ सागर ही में जा रही हैं। उतरी तो है सामात्मा से और जा रही हैं भव-सागर में और वहाँ जा कर खो रही हैं, मिल रही है।
अब हमें चाहिए कि गंगा को सागर से लौटा कर, गंगोत्री ले जाएँ। अब गंगा चढ़ी कहो, अब गंगा उतरी नहीं कहो । गंगा को चढ़ाओ। हमारी जो सुरति-धारा, जगत् में जाती है उसे अपने-आप में लौटा कर, अपने-आप में समा जाओ। अपने स्वामी में, अपने पिया में लौट जाओ और वहाँ कोई और नहीं होगा। जब पिया में तुम्हारी धारा लौट कर जाएगी; तो यहाँ तुम्हारे और तुम्हारे स्वामी के; तुम्हारे और तुम्हारे प्रिय प्रभु के, उस निराकार, निर्गुण, परब्रह्म परमात्मा के और सुरति के, एक होने के अलावा दूसरा विकल्प ही नहीं होगा। वहाँ इतनी अभिन्नता होगी कि वह और तुम दो नहीं लगोगे। इसी को कहते हैं -
'ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति ।'
ब्रह्मवित् बह्य ही हो जाता है।
'ब्रह्मविदाप्नोति परम् ।'
ब्रह्मवित् परम को प्राप्त करता है। हमारी सुरति, भक्ति के द्वारा नाम के सहारे, पहले जगत् से थोड़ी अर्न्तमुख होती है; फिर पहचानी जाती है।
साक्षी तो तब भी सुरति के साथ था, जब यह जगत् में थी। सुरति इतनी कुशल और बालाक रमणी की तरह है, जो पति को साथ लिटाए है और प्रेमी को प्यार कर रही है। जब तुम्हारी सुरति कहीं जाए; जब तुम्हारी सुरति तुम्हारे साथ रहते कहीं घूम रही होवे; तो जरा-सा कह दो कि 'मैं' हूँ। तुम्हारे इशारे से ही कि 'मैं हाजिर हूँ' मैं साक्षी हूँ; वृत्ति तुरन्त ही लौट आएगी। साक्षी को कहते; साक्षी को स्वीकारते; 'मैं चैतन्य हूँ' स्वीकारते ही, तुम्हारी वृत्ति विषय से लौट कर चैतन्यपने में आ जाएगी। ज्यादा झंझट की बात नहीं है।
बुद्धि का, जीव का और इन्द्रियों का प्रकाशक यहाँ रहता है कि तुम्हारे भीतर भी रहता है। तुम्हारी इन्द्रियों का, मन का, बुद्धि का और जीव का प्रकाशक साक्षी, परमानन्द में रहता है ? क्या वह संन्यासियों में रहता है? क्या वह पुण्यात्माओं में रहता है? क्या वह पापियों में नहीं रहता ? क्या वह गृहस्थों में भी रहता ? वह स्त्रियों में तो रह ही नहीं सकता? बड़े-बड़े पण्डित यही कहते हैं कि स्त्रियों में राम कहाँ से आ गए ? क्या स्त्रियों में भी राम रहेगा ? ऐसी कुलच्छिन स्त्रियों में भी राम रहेगा ? विद्वान् लोग तो सभा में बैठ कर पता नहीं क्या-क्या कहते है? क्या राम भी तुम्हें छोड़ कर चला जाएगा ?
कई लोग कहते है कि राम ऊपर रहता है; यहाँ कीचड़ और गन्दगी में कैसे रहेगा राम ? कई लोगों का भगवान् ऊपर रहता है। कई लोगों का भगवान् मधु-मक्खी के छत्ते के समान रहता है; कई लोगों का भगवान् शिव पिण्ड तथा गुब्बारे की तरह रहता है और सब जीवात्माएँ उसी में मधुमक्खी की तरह चिपकी रहती हैं। तुमको हम एक बात बता रहे हैं कि हमारा जीव भी परम प्रकाशक राम में चिपका है। पर, हर जीव एक साक्षी में ही चिपका है। देखो ! इन इन्द्रियों का, मन का और बुद्धि का प्रकाशक, इस जीव का प्रकाशक कहाँ है ? ध्यान कहाँ है ? सुरति में है। इस सुरति का भी जो प्रकाशक है, वही चेतन है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!
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