"जगत् कल्पित, ब्रह्म अकल्पित"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
क्या तुमने कभी भी अपने को सब में देखा है और सबको अपने में देखा है? नहीं देखा। जब तक यह नहीं देखा, तब तक ज्ञान ही नहीं हुआ।
उपनिषद् कहता है-
'यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति, सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ।'
जो अपनी आत्मा को सब में और सबको अपनी आत्मा में देखता है, वह फिर कभी जलता नहीं । वह ईर्ष्या नहीं करता; झुलसता नहीं; दुःखी नहीं होता और कामनाओं में नहीं जलता।
इसी का अगला मन्त्र है-
'यस्मिन् सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद् विजानतः । तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ।।'
जो, अपने को जान लेने के बाद, सबको आत्मा ही देखता है; जिसको सब आत्मा ही लगने लगता है; उसे 'मैं' के अलावा कुछ लगता ही नहीं। पहले तो सबमें अपने को देखा और अपने में सबको देखा। फिर, सबको नहीं देखा। फिर क्या देखा? सब आत्मा ही हो गया है। सब 'मैं ही रह गया है। 'मैं' ही हूं ऐसा लगने लगा। जैसे स्वप्न में एक आदमी एक देह सब जीता है. ऐसे ही कोई आदमी सबको 'मैं' जाने। वह सबको उतना ही नजदीक जाने, जितना कोई घड़ा मिट्टी को नजदीक जानता है। घड़ा, मकान को अपने से दूर देखता है। मकान, घड़े को अपने से दूर देखता होगा और नजदीक भी देखता होगा, लेकिन, अपने में नहीं देखता होगा। कुछ न कुछ दूर ही देखता होगा। परन्तु, जो घड़ा अपनी आत्मा अर्थात् मिट्टी को अपना आप जानता है, वह अपने घड़े को भी अपने ही में देखता है और वह मकान को भी अपने में ही देखता है।
वह किस मकान को नजदीक देखता है और किस मकान को दूर देखता है ? जो घड़ा अपने को मिट्टी देखता है, वह किसी भी मकान को दूर नहीं देखेगा। वह मकान को दूर नहीं देख सकता। जो घड़ा अपने को जानता है, उसके जानने का लाभ यह हुआ कि वह अपने से दूर कुछ नहीं देखता। सब अपने में देखता है और अपने को सबमें देखता है।
कीमत देखने की है; सुनने की नहीं। यह देखने की कुंजी है। क्या आपने कभी ऐसा देखा ? क्या आप कभी ऐसा देख पाए ? क्याआपका मनोभाव कभी ऐसा बना ? क्या आपने उस सत्य को जाना, जिसके जान लेने पर सब में अपने को देखा जा सकता है ?
अपने को घड़ा देख कर कैसे कोई मकान को अपने में देखेगा ? जो अपने को घड़ा देखेगा, वह मकान को, दुकान को, मन्दिर को और गुरु द्वारे को और देखेगा। और जो घड़ा अपने को मिट्टी देखेगा, वह सबको मिट्टी देखेगा और अपने को सब में देखेगा। उसका अगला कदम उठेगा और तब वह अपने अलावा कुछ नहीं देखेगा। वह अपने आपको ही सर्वत्र देखेगा।
तुम भी ढूँढना शुरू करो। जिस दिन, जिस सेकण्ड तुम्हें अपने अलावा कुछ न मिले, समझो कि ज्ञान हो गया। आप कहेंगे कि फिर बाद में व्यवहार कैसे चलेगा ? फिर बाद में सब घड़े मकान बना लेंगे और फिर काम चला लेंगे। कल्पित मकान, कल्पित घड़ा, कल्पित मन्दिर, कल्पित मस्जिद, कल्पित गुरुद्वारे, कल्पित चबूतरे, कल्पित ईंटें, कल्पित द्वैत; वास्तविक केवल अद्वैत। जगत् कल्पित, ब्रह्म अकल्पित। कल्पित देह, अद्वैत सत्य । भेद कल्पित, अभेद सत्य। एक सत्य, अनेक असत्य । अनेक कल्पित लगेंगे और एक सत्य लगेगा। कल्पित माने स्वप्न ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!
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