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मंगलवार, 25 फ़रवरी 2025

"ब्रह्म होना नहीं पड़ता" (भाग-2)

"ब्रह्म होना नहीं पड़ता" (भाग-2)

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

तुम वक्ता नहीं हो; लेकिन, ब्रह्म हो सकते हो। हो सकता है कि तुम वक्ता हो और ब्रह्म न हो; क्योंकि, यदि वक्ता देहाभिमानी है, तो वह ब्रह्म नहीं है। एक आम श्रोता, जो लैक्चर नहीं दे सकता; गुरूके उपदेश सुनकर अपनी बह्मता को जान सकता है। कोई व्यक्ति घन जोड़कर, पैसे वाला होकर, ताकतवर होकर बह्म नहीं हो सकता। कहते हैं-

'न मेघया न बहुना श्रुतेन ।'

कोई मेधा वाला भी ब्रह्म नहीं होता। किन्तु, जो इन सबका अभिमान और अहंकार छोड़कर साक्षीस्वरूप को देखता है; वह बहा ही है। उसे ब्रह्म होना नहीं पड़ता।

आप लोग भी कल्पनाएँ न किया करो। सहज शान्त होकर बैठा करो। जब आप आँखों के तल पर हैं, तो चेतन के सिवाय कुछ नहीं है। आँखें हैं; लेकिन, आप चेतनता के सिवाय कुछ नहीं है। आँखों में बैठे हो, पर, चेतनता के सिवाय आप कुछ नहीं है। कानों में भी शब्द के ज्ञाता के सिवाय आप कुछ नहीं हैं। रसना में स्वाद के बोध के सिवाय आप कुछ नहीं है। त्वचा में, शीतोष्ण के प्रकाशक के सिवाय आप कुछ नहीं हैं। मन में संकल्प और विकल्पों के साक्षी के सिवाय आप कुछ नहीं है। बुद्धि में भी, कल्पनाओं में भी, आप केवल चित् तत्त्व ही हैं। जिस तल पर भी है, आप चेतन ही हैं। यदि स्थूल पर है, तो चेतन हैं; मन पर हैं, तो चेतन हैं।

तुम्हारा मन आकाश में है। जब तुम्हारा मन आकाश में है; तो उस समय तुम क्या हो ? आप जरा आकाश में मन को लगाकर देखें। आप क्या है? आप आकाश के और मन के साक्षी है। मन आकाश में गया, तो आकाशाकार हो गया। मन को आकाश की अनुभूति होने लगी। लेकिन, आकाश की अनुभूति में वृत्ति आकाशाकार हो गई। साक्षी आकाशाकार वृत्ति को प्रकाश रहा है। मन पहाड़ में गया, तो तुम्हारी वृत्ति पहाड़ाकार हो गई, पहाड़ के तद्रूप हो गई। तुम उस पहाड़ को प्रकाशित कर रहे हो। चैतन्य ही उसे प्रकाशित कर रहा है। जब तुम्हारी वृत्ति स्वप्नाकार हो गई, तो स्वप्न को तुम ही प्रकाश रहे हो।

ध्यान में तुम्हारी वृत्ति गुरू के आकार की, भगवदाकार, प्रकाशाकार, शून्याकार और अन्धकाराकार हो गई, तो गुरू को, भगवान् को, प्रकाश को, शून्य को और उस अन्धकार को तुम ही प्रकाश रहे हो। वृत्ति तद्रूप हो जाती है और चैतन्य प्रकाशता है। जब वृत्ति क्रोधाकार होती है, तो चैतन्य ही प्रकाशता है। वृत्ति, किसी का रूप धारण करती है; लेकिन, तुम सदा ही चैतन्य और प्रकाश हो। प्रकाश के सिवाय तुम कभी कुछ हुए ही नहीं। तुम्हारी वृत्ति ही हुई, जो कुछ भी हुई। वृत्ति जगताकार, संस्काराकार, पदार्थाकार, विषयाकार, शब्दाकार अंहकाराकार, रसाकार और शरीराकार कुछ भी होती हो, हो जाए, लेकिन, चित् तत्त्व चैतन्य के सिवाय कभी कुछ नहीं हुआ।

वृत्ति के तादात्म्य से, जैसी-जैसी वृत्ति होती है, वैसा ही वैसा चेतन चलता हुआ, दौड़ता हुआ, गिरता हुआ और बदलता हुआ लगता है; लेकिन, यह परिवर्तन वृत्ति का ही है। जैसे इन्द्रियों में से कानों में परिवर्तन हो जाए, तो सुनना बन्द हो जाएगा; आँखों में परिवर्तन हो जाए, तो दिखना बन्द हो जाएगा; लेकिन, चैतन्य कभी भी नष्ट होने वाला नहीं है। चैतन्य तो सदैव ही रहेगा। इन्द्रियाँ नष्ट होंगी, वृत्तियाँ नष्ट होंगी, अन्तःकरण नष्ट होगा; निद्रा जाग्रति और स्वप्न नष्ट होंगे और यह शरीर भी नष्ट होगा, पर, चैतन्य कभी नष्ट नहीं होता और वह कभी चंदा भी नहीं होता। वह चैतन्य तुम ही हो।

बह्य अपना पर्दा, अपने-आप का आवरण, आप नहीं हटाता। वह माया में आवृत है। वृहत्, समष्टि, उपाधि से ढँका है और जीव व्यष्टि से ढका है। 'मैं' साक्षी तो जीवत्व से ढँका है और बह्य, ईश्वरत्व से बँका है। पर, ईश्वर अपने ईश्वरत्व को त्याग करके, हमसे एकता नहीं करेगा। ईश्वर के ईश्वरत्व को और जीव के जीवत्व को हटाकर, दोनों उपाधियों का बाध करेंगे, ईश्वर नहीं करेगा। ईश्वर की सृष्टि की रचना उपाधि, सृष्टि आदि रचने की सामर्थ्य उपाधि जैसे भगवान् के जो स्वभाव हैं, उनका बाध करके और अपने में देह, इन्द्रिय और बुद्धि की सीमा का परित्याग करके, साक्षी और ब्रह्म को एक अनुभव करने का अधिकार मुझे है।

वह राजी तो है कि कोई एकता कर ले; लेकिन, वह कुछ करने वाला नहीं है। तुम्हीं करो, जो कुछ करो। वह इसलिए नहीं करता, क्योंकि, उसकी उतनी अटकी नहीं है, जितनी कि हमारी अटकी है। जिसकी अटकी हो, वह करे। भगवान् हटाना तो चाहता है, राजी तो है, वह मना नहीं करता, पर, अपनी तरफ से वह खुद नंगा नहीं होता। उसकी उपाधि का त्याग और अपनी उपाधि का त्याग, दोनों ही उपाधियों का त्याग तुम करो और तुम अपने को ब्रह्म जानो। तुम और ब्रह्म एक हो जाओ। उपाधि छोड़कर तुम एक हो, तो एक हो जाओ, क्योंकि, 'तत्त्वमसि' महावाक्य में तत्, त्वम् और असि का अर्थ है; वह तू है, वह तुम हो; तुम वह हो; वह और तुम दोनों एक हो।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

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