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सोमवार, 17 फ़रवरी 2025

"तत्त्व दृष्टि और व्यावहारिक दृष्टि" (भाग-2)


"तत्त्व दृष्टि और व्यावहारिक दृष्टि" (भाग-2)

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

तत्त्व दृष्टि और व्यावहारिक दृष्टि में भेद है। व्यवहार की दृष्टि में है और परमार्थ की दृष्टि में नहीं है। व्यवहार की दृष्टि में भी जैसे है, वैसे ही व्यवहार की दृष्टि में भी एक समय नहीं रहेगा। यह भी व्यवहार की दृष्टि है। व्यवहार की दृष्टि में गहना है और व्यवहार की दृष्टि में ही गहना टूट गया। गहना टूट जाने पर स्त्रियाँ कहती हैं कि जल्दी बनवा दो, क्यों कि शादी का समय आ गया है। यह किस दृष्टि से है? व्यवहार की दृष्टि से है; पर, तत्त्व की दृष्टि से सोना, गहना टूट जाने पर भी है और दूसरा गहना बन जाने पर भी है। स्वर्ण का अभाव दोनों ही स्थितियों में नहीं है। इसी अर्थ को लेकर मैं कहता हूँ कि आत्मज्ञान की दृष्टि से ज्ञानी का कभी किसी क्षण भी अभाव नहीं होता। तत्त्व की दृष्टि से ज्ञानी सदा वर्तमान है; लेकिन, व्यवहार की दृष्टि से कभी ज्ञानी जगत् में है और कभी नहीं है।

हमारा जगत् में होना भी प्रातिभासिक व्यवहारिक ही है और जगत् से चला जाना, मर जाना भी व्यवहारिक ही है। केवल जन्म ही व्यवहारिक नहीं, मृत्यु भी व्यवहारिक है। देह में आ गए और देह को छोड़कर चले गए। चाहे सोने से, चाहे समाधि से, चाहे मौत से । देह को छोड़कर हमारा जाना और देह में हमारा फिर आ जाना भी प्रातिभासिक व्यवहारिक ही है। तत्त्वतः न हम देह में आते हैं और न देह से जाते हैं।

रूई मिट्टी में कल्पित है और रूई में सब राउटियाँ कल्पित हैं। एक ही तो है। यदि ऐसा कोई सस्ता तरीका होता, तो हम किराये से भी बच जाते। राउटियों के किराये का पैसा ही न देना पड़ता। वेदान्त के इस सिद्धान्त में ही सबको ठहरा देते। लेकिन, ठहराने के लिए राउटियाँ लगा रहे हैं और उपदेश में राउटी का खण्डन कर रहे हैं।

तुम ज्यादा वेदान्ती हो जाते हो और तीनों काल में कुछ नहीं रहने देते। कम-से-कम व्यवहारकाल में तो रह लेने दो। तीनों काल में जगत् उड़ाये दे रहे हो; व्यवहारकाल में तो रहने दो। व्यवहारकाल में माने किसी काल में तो रहने दो। तीनों काल में नहीं है जगत्; लेकिन, एक व्यवहारकाल भी है। तीनों काल में जगत् नहीं है यह कब देखा? कहते हैं कि तत्त्व की दृष्टि से देखें तो तीनों काल में जगत् नहीं है। इसी तरह गहना भी नहीं है। सोने को देखें, तो किसी भी काल में गहने नाम की वस्तु नहीं है। वर्तमान काल में भी नहीं है। कहते हैं कि फिर है क्यों ? बोले व्यवहारकाल में है। वर्तमान काल में नहीं है। केवल व्यावहारिक दृष्टि में है।

तत्त्व दृष्टि और व्यावहारिक दृष्टि में भेद है। व्यवहार की दृष्टि में है और परमार्थ की दृष्टि में नहीं है। व्यवहार की दृष्टि में भी जैसे है, वैसे ही व्यवहार की दृष्टि में भी एक समय नहीं रहेगा। यह भी व्यवहार की दृष्टि है। व्यवहार की दृष्टि में गहना है और व्यवहार की दृष्टि में ही गहना टूट गया। गहना टूट जाने पर स्त्रियाँ कहती हैं कि जल्दी बनवा दो, क्यों कि शादी का समय आ गया है। यह किस दृष्टि से है? व्यवहार की दृष्टि से है; पर, तत्त्व की दृष्टि से सोना, गहना टूट जाने पर भी है और दूसरा गहना बन जाने पर भी है। स्वर्ण का अभाव दोनों ही स्थितियों में नहीं है। इसी अर्थ को लेकर मैं कहता हूँ कि आत्मज्ञान की दृष्टि से ज्ञानी का कभी किसी क्षण भी अभाव नहीं होता। तत्त्व की दृष्टि से ज्ञानी सदा वर्तमान है; लेकिन, व्यवहार की दृष्टि से कभी ज्ञानी जगत् में है और कभी नहीं है।

हमारा जगत् में होना भी प्रातिभासिक व्यवहारिक ही है और जगत् से चला जाना, मर जाना भी व्यवहारिक ही है। केवल जन्म ही व्यवहारिक नहीं, मृत्यु भी व्यवहारिक है। देह में आ गए और देह को छोड़कर चले गए। चाहे सोने से, चाहे समाधि से, चाहे मौत से । देह को छोड़कर हमारा जाना और देह में हमारा फिर आ जाना भी प्रातिभासिक व्यवहारिक ही है। तत्त्वतः न हम देह में आते हैं और न देह से जाते हैं।

कल्पित है। जितनी देर वृत्तियाँ रहे, उतनी देर साक्षी न रहे और जितनी देर साक्षी रहे, उतनी देर वृत्तियों न रहें, तब तो दोनों ही कल्पित है। वह रहेगा तो, यह नहीं रहेगा और यह रहेगा, तो वह नहीं रहेगा। देखो! स्वप्न का जाग्रत से विरोध है और जाग्रत का स्वप्न से विरोध है, लेकिन, साक्षी का स्वप्न से विरोध नहीं है और साक्षी का जाग्रत से भी विरोध नहीं है। साक्षी को तो हर स्थिति में होना ही पड़ेगा।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

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