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रविवार, 16 फ़रवरी 2025

"तत्त्व दृष्टि और व्यावहारिक दृष्टि" (भाग-1)

"तत्त्व दृष्टि और व्यावहारिक दृष्टि" (भाग-1)

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

उपनिषद् जब जगत् को मिथ्या कहता है, तो उसका भी कोई दृष्टिकोण होगा। जब वह जीव को बह्य कहता है, तब भी उसका कोई प्रयोजन होगा। व्यर्थ कुछ नहीं कहा है। जीव को बह्य कहने का प्रयोजन क्या है? क्या चिल्लाने के लिए, चेले बनाने के लिए या सम्प्रदाय बढ़ाने के लिए जीव को ब्रह्म कहा है? जीव अपने को ब्रह्म न मानकर के दुःखी है; देह मानकर दुःखी है, इसलिए, जीव में बह्यता की दृष्टि आ जाए। जीव और ब्रह्म का भेद कल्पित है। भेद को कल्पित कहा नहीं है। उपनिषद् कल्पित शब्द का प्रयोग नहीं करता। क्यों नहीं करता ? करेगा भी, तो तब करेगा; जब तुम खुद कहोगे कि भेद नहीं है। इसके पहले वह क्यों कहे? वह तो समझाना चाहता है।

वह कहता है कि जीव-जीव में परस्पर भेद है। जीव-ईश्वर का भेद यदि दिखाना होता और भेद दिखता न होता; तो किसी जीव को यह क्यों सुनाते कि जीव-जीव में भेद है ? जीव-ईश्वर में भेद है। जीव-जड़ में भेद है। जड़-जड़ में भेद है। क्या ऐसा नहीं है? क्या जड़-जड़ का भेद नहीं है? दो जड़ एक जैसे नहीं हैं। दोनों पेड़ जड़ हैं, लेकिन, एक आम का है, दूसरा अमरूद का है। एक बबूल का है, दूसरा बेरी का है। पंडाल और राउटियाँ सब जड़ हैं, लेकिन, जड़-जड़ में परस्पर भेद है। जीव-जीव में परस्पर भेद है। जीव और जड़ में भेद है। जीव और ईश्वर में भेद है। किन्तु वेदान्त कहता है-

'आतम अनुभव सुख सुप्रकासा ।

तब भव मूल भेद भ्रमनासा ।।'

जब आत्मा का अनुभव हो जाता है, तब इस भेद-भ्रम का नाश हो जाता है। भेद का नाश नहीं होता। भेद-भ्रम का नाश हो जाता है। जैसे तत्त्वतः मिट्टी को जान लेने वाले का, घड़े का और मकान का जो भेद है, वह भेद-भ्रम नष्ट हो जाता है; भेद उपयोगिता नष्ट नहीं होती । भेद की उपयोगिता तो रहती है और उसका उपयोग भी करता है। तत्त्व के जानने वाला भी घड़े में पानी भरता है; ढेले में नहीं भरता। आजकल शिविर में हमारे यहाँ बहुत लोग आ रहे हैं; तो उन्हें कहाँ ठहरा दें? ढेले में ठहरा दें ? दस-पचास ढेले लगा देंगे, क्योंकि रूई मिट्टी में कल्पित है और रूई में सब राउटियाँ कल्पित हैं। एक ही तो है। यदि ऐसा कोई सस्ता तरीका होता, तो हम किराये से भी बच जाते। राउटियों के किराये का पैसा ही न देना पड़ता। वेदान्त के इस सिद्धान्त में ही सबको ठहरा देते। लेकिन, ठहराने के लिए राउटियाँ लगा रहे हैं और उपदेश में राउटी का खण्डन कर रहे हैं।

तुम ज्यादा वेदान्ती हो जाते हो और तीनों काल में कुछ नहीं रहने देते। कम-से-कम व्यवहारकाल में तो रह लेने दो। तीनों काल में जगत् उड़ाये दे रहे हो; व्यवहारकाल में तो रहने दो। व्यवहारकाल में माने किसी काल में तो रहने दो। तीनों काल में नहीं है जगत्; लेकिन, एक व्यवहारकाल भी है। तीनों काल में जगत् नहीं है यह कब देखा? कहते हैं कि तत्त्व की दृष्टि से देखें तो तीनों काल में जगत् नहीं है। इसी तरह गहना भी नहीं है। सोने को देखें, तो किसी भी काल में गहने नाम की वस्तु नहीं है। वर्तमान काल में भी नहीं है। कहते हैं कि फिर है क्यों? बोले व्यवहारकाल में है। वर्तमान काल में नहीं है। केवल व्यावहारिक दृष्टि में है।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

शेष दूसरे भाग में


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