ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
अँगूठी का आधार सोना है, नथनी का आधार सोना है और चूड़ी का आधार भी सोना है, तो सोना ही सब गहनों का आधार है। इसी तरह से, एक मकान का आश्रय, दूसरे मकान का आश्रय और तीसरे मकान का आश्रय मिट्टी ही है। जब कोई मकान टूटेगा, तो वह कहेगी कि मकान नहीं रहा। लेकिन, मकान यहाँ नहीं रहा; कहीं और तो है। यहाँ ही नहीं रहा है। मिट्टी में यहीं मकान नहीं रहा या कहीं भी मकान नहीं रहे ? यहीं मकान नहीं रहा और जगह तो मकान हैं। इसी तरह से, साक्षी में यहाँ स्वप्न नहीं रहा, जाग्रत है, यहाँ जाग्रत नहीं रहा, स्वप्न है। लेकिन, क्या साक्षी में कहीं भी स्वप्न नहीं है? क्या साक्षी में कहीं भी जगत् नहीं है? क्या साक्षी में कहीं भी नींद नहीं है? साक्षी में, कहीं स्वप्न है, कहीं जगत् है और कहीं नीद भी है। कहीं जन्म है, तो कहीं मौत भी है। लेकिन, सब जगह साक्षी कितने हैं? साक्षी एक ही है-
'एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्व ।'
साक्षी एक है। एक ही देवता है, एक ही ब्रह्म है और वही साक्षी है, जो एक है। जो पृथ्वी, जो मिट्टी एक है, वहीं पड़े में, वही मकान में, वही दुकान में, वही ईंट में और वही बेले में है। वही मिट्टी, एक ही मिट्टी, सब में समाई हुई है। लेकिन, ढेले वाली मिट्टी अपने को सीमित करती है कि बेला उसमें है। अब ढेला नहीं रहा। वह यह बनेगी। वह सीमित हो कर सोचती है। अभी भी साक्षी, देह के द्वारा बुद्धि के अभिमान से सोचता है। 'मैं' आदमी हूँ 'मैं' दुःखी हूं 'मैं' स्वप्न में हूँ और 'मैं' जागा हूँ।
सब में, एक साक्षी को एक जानना ही वेदान्त का अपना उद्देश्य है। साक्षी जानने तक तो योग भी साथ ही है। सांख्य भी साक्षी है। सांख्य और योग, हमारी आत्मा के चेतन होने तक आत्मा के निर्विकार होने तक, आत्मा के जन्म-मरणरहित होने तक, योग भी साक्षी है और सांख्य दर्शन भी साक्षी है। किन्तु, साक्षी सारी दुनियां में एक है और दुनियां के साक्षी तुम्ही हो।
अब तुम्हें लगता क्या है? गड़बड़ क्या है? तुम अपने को दुनियां भर के साक्षी क्यों नहीं मानते ? यह बात गहराई की है। इतना समझ जाओ कि तुम्हारा पूरा ज्ञान, तुम्हारा सारा दारोमदार यहाँ इस बात पर है कि पहले तो तुम अपने को साक्षी जानो। कई लोग तो साक्षी ही नहीं समझ पाते। पहली सीढ़ी है कि तुम अपने को वृत्ति, अन्तःकरण, स्वप्न और कल्पना का साक्षी जानो ।
साक्षी किसे कहते है? जो बदल जाता है? जो कुछ हो जाता है और फिर खो जाता है? जो हमेशा रहता है और कुछ बदल जाता है? मान लेते हैं कि वह बना रहता है, पर बदल-बदलकर रहता है? जो यह जानता है कि वह बिना बदले रहता है, वह आत्मवेत्ता है। अभी वह ब्रह्मवेत्ता नहीं है। पर, इतने में ही कृतकृत्यता हो जाती है।
कई लोग तो यहीं आकर कहने लगते हैं कि आहा! कितना अच्छा लगता है। अभी तो तुम्हें यही स्पष्ट नहीं है कि तुम साक्षी हो। नहीं तो उपनिषद् का वचन 'तत्त्वमसि' अनुभवहीन ऋषियों का बनाया हुआ नहीं है। तत्, त्वम्, तुम वह हो। वह कौन? तुम कौन ? ये दो बातें क्यों ? 'तत्' और 'त्वम्' दो पद हैं। तत्, वह; त्वम्, तुम। फिर तो दो हो गये, वह और तुम । फिर वह तुम हो। वह जो है, वह तुम हो। तुम ही वहाँ भी हो।
'तत्त्वमसि' माने त्वम् एवं तत् । तुम ही, वह भी हो। जो तुम हो, यह तुम ही वह हो। अच्छा ! चलो वह न जानो। पर, अभी तुम देह हो? तुम मन हो ? तुम स्वप्न हो ? तुम ख्याल हो ? फिर, तुम क्या हो ? तुम साक्षी हो। पहले तुम साक्षी हो और जो तुम हो, वही तत् है। वही तत् है, वही तुम हो। तुमको हम ब्रह्म कहते हैं, लेकिन, तुमको हम देह नहीं कहते । तुमको हम बुद्धि नहीं कहते । तुमको हम प्रकृति या माया नहीं कहते। पहले हम तुमको साक्षी कहते हैं। जब तुम यह समझ जाओगे, तब तुमको हम ब्रह्म कहेंगे। इसके पहले हम तुमको कभी ब्रह्म नहीं कहेंगे। पहले हम बार-बार तुमको साक्षी कहेंगे। क्यों ? इसलिए कि पहले तुम्हारा देह धर्म टूट जाए। पहले तुम्हारा मनोधर्म टूट जाए, बुद्धि-धर्म टूट जाए; विचार-अहंकार टूट जाए। केवल चिन्मात्रता, साक्षीमात्र, निर्विकल्प, चैतन्य, शान्त, शिव तत्त्व, मैं रूप से पहले स्पष्ट हो जाए। इसको कहते हैं 'त्वम्' पद का शोधन ।
'तत्त्वमसि' महावाक्य में तीन शब्द हैं। जिसमें दो पद 'तत्' और 'त्वम्' पद हैं। 'तत्' का अर्थ होता है वह और 'त्वम्' का होता है तू। तू में भी मिलावट है और तत् में भी मिलावट है। तत् भी शुद्ध नहीं है; और त्वम् भी शुद्ध नहीं है; दोनों ही अशुद्ध हैं। तुममें क्या-क्या मिला है? तुममें देह, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहंकार मिला है। और उसमें क्या मिला है? उसमें सूर्य, चाँद, धरती और आसमान मिला है। इसमें उसको मिला दें। दोनों को नंगा करना है। दोनों को शुद्ध करना है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!
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