"बौद्धिक समझ पर्याप्त नहीं" (भाग-2)
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
जहाँ चेतन के पास बुद्धि है और आभास है, वहीं विचार उठते हैं, लेकिन, जहाँ बुद्धि है; जहाँ आभास है; वहाँ ब्रह्म का विचार नहीं उठा; अखण्ड का विचार नहीं उठा। विचार उठा, तो देह के अनुसार, वृत्तियों के अनुसार, बुद्धि के अनुसार उठा और हमेशा अपने को यह जाना कि मैं सीमित हूँ; क्योंकि, विचार जिधर देखते हैं, उधर से ही उठते हैं। जितना जान पाए, उतना ही सोच लिया। जिस झरोखे से देखा, उतना ही मान बैठे। जिस बुद्धि के द्वारा जाना गया, उस बुद्धि की सीमा में ही हमारा ज्ञान था। इसलिए, जो असीम चेतन है, अखण्ड चेतन है, अनन्त चेतन है, वह बुद्धि के कारण सीमित लगने लगा।
आप भी अपनी बुद्धि से न सोचें। आप चेतन को थोड़ी देर 'मैं' न कहें। यद्यपि, वेदान्ती बार-बार 'मैं' कहलवाते हैं; पर, मैं आपसे एक संशय निकालने को कहता हूँ। आप चेतन को 'मैं' मत कहो। बुद्धि में चेतन ही का प्रकाश है कि किसी और का? इसको 'मैं' मत कहना। दूसरे की बुद्धि में किसका प्रकाश है? किसी भी देह में जो बुद्धि है, उसमें प्रकाश किसका है? उसमें भी चेतन ही का प्रकाश है। 'मैं' का प्रकाश है, यह मत कहना; क्योंकि, 'मैं' कहोगे, तो एक 'मैं' इनका है; एक 'मैं' उनका है और एक 'मैं' मेरा है। इतने 'मैं' कहेंगे कि 'मेरा प्रकाश है।' मेरा कहते ही, इस अन्तःकरण के प्रकाश को अपना प्रकाश कहोगे और उस अन्तःकरण वाला, उस प्रकाश को अपना प्रकाश कहेगा।
जब बल्ब कहता है कि यह रोशनी मेरी है; यह रोशनी मेरी है; तब बिजली बेचारी चुप है। जिसकी रोशनी है, वह बोलती नहीं है और जो बोलते हैं, उनकी रोशनी है नहीं। गड़बड़ तो यही है। बिजली बोलती ही नहीं है। लड़ाई चल रही है। बिचारा बह्य भी मौन है। यदि ब्रह्म बोलता, लेकिन, वह बोले कहाँ से ? यदि, वह बोलेगा, तो फिर बुद्धि को लेकर बोलेगा। जहाँ वह बुद्धि को ले लेगा, वहाँ तुम फिर संशय करोगे कि यदि तुम ब्रह्म हो, तो सब जगह की बताओ। जो बोला, वही पकड़ा गया।
जो आत्मा को जानी जाती हुई जानता है, वह नहीं जानता। जो यह जानता है कि आत्मा नहीं जानी जाती, तो यह मत समझो कि वह अज्ञानी है। जो यह कहता है कि आत्मा नहीं जानी जाती, वह अज्ञानी नहीं है, बल्कि, आत्मा को वही ठीक से जानता है। आत्मा को वही जानता है; जो आत्मा को जाना हुआ नहीं जानता। उन्हीं उपनिषदों से, पण्डित लोग, जिनमें साधू भी शामिल हैं, उद्धरण देते हैं। यदि, मैं केवल पण्डितों के लिए ही कहूँगा, तो लोग कहेंगे कि साधुओं का पक्षपात करता हूँ। आधे से ज्यादा साधू भी पण्डित ही हैं। पण्डित का मतलब है, ऐसा व्यक्ति, जो बिना जाने कहता रहे ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!
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