"स्वरूप के अज्ञान से ही द्वन्द्व" (भाग-2)
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
ध्यान क्या है ? निर्द्वन्द्वावस्था ही ध्यान है। भीतर कोई भी चुनाव नहीं है। न कोई द्वन्द्व है और ना ही कोई ख्याल है। यही साक्षीपना है। यह तो जब आप ध्यान करेंगे, तभी धीरे-धीरे समझ में आएगा। यह ऐसे ही समझ में नहीं आएगा। प्रवचनों से जो समझते हो, वह टिकता नहीं है। इसलिए, प्रवचन सुन कर ध्यान करो और ध्यान करके प्रवचन सुनो। जो ध्यान करते हैं, वे प्रवचन सुनें और जो प्रवचन सुनते हैं, वे ध्यान करें। जो लोग घर पर घण्टे, आधा घण्टे ध्यान करते हैं; जो अपनी मनोवृत्तियों को ठीक से जानने लग गए हैं; वे फिर वेदान्त सुनें, तो जो कुछ उलझन रह गई होगी, वह भी सुलझ जाएगी ।
ध्यान और वेदान्त एक-दूसरे के पूरक हैं। जो केवल सुनते हैं; कभी अन्तर्मुख हो कर ध्यान नहीं करते; उनको सुनने में तो मजा आएगा, पर निष्ठा मुश्किल से बनेगी । यदि निष्ठा बनेगी भी, तो वह चिल्लाने वाली होगी। वह अभिमान की द्योतक होगी। वह एक उच्खलता सी लगेगी; क्योंकि, उसके जीवन में विवेक का उदय नहीं हुआ है। वहाँ केवल शब्द संग्रहीत हो गए हैं। इसलिए, सुनने वाले ध्यान जरूर करें और ध्यान करने वाले सुनें जरूर ।
ध्यान करने वाले क्यों सुनें ? क्योंकि, ध्यान करने वालों को मनोदशा के अनुसार विचित्र अनुभूतियाँ होने लगती हैं। कभी प्रकाश, कभी गुरू, कभी गोल-गोल गुब्बारा जैसा और कभी शिव जैसा दिखता है। शिव प्रकाश का प्रतीक है। इसी तरह से अन्य अनुभव भी होते हैं। कभी साँप, कभी कुण्डलिनी, कभी दिव्यानन्द जैसी विलक्षण-विलक्षण अनुभूतियाँ होती हैं। साधक अनुभूतियों को ही सत्य मान कर, उनमें ही टिक जाता है। इसलिए, जो भजन करते हैं, ध्यान करते हैं, उन्हें किसी ज्ञानी पुरुष का संग जरूर करन्नग चाहिए। जिनको भजन और ध्यान किए बिना ही कोई अच्छे गुरू मिल गए हों, उनको सुनने के बाद उसका अभ्यास जरूर करना चाहिए।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!
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