"उपनिषद् की एक प्रक्रिया : निषेधावधि"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
स्वरूप के अनुभव की यह प्रक्रिया है कि जब ध्यान में बैठो, तो जो भी विषय आए; बाहे वह नेत्र का विषय हो, चाहे वह कान का विषय हो, चाहे वह नाक का विषय हो और बाहे वह त्वचा का विषय हो; उन सभी विषयों को दृश्य जगत् जानो। फिर त्वचा, नेत्र, कान, नाक, आँख जिन इन्द्रियों आदि से विषय मालूम पड़ते हैं; उनको भी इन्द्रियाँ ही जानो; माया ही जानो। फिर, जिस मन के द्वारा इन्द्रियाँ मालूम पड़ती है, उस मन को भी माया ही जानो। तुम बुद्धि के द्वारा इन इन्द्रियों को अपनी समझते हो; अब बुद्धि के ही द्वारा इनका निषेध करके, अपने को साक्षी जानो; चैतन्य जानो और ऐसा जानकर-
'न किंचिदपि चिन्तयेत्।'
इन सबका निषेध करके,'मैं' साक्षी हूँ, 'मैं' चैतन्य हूँ और 'मैं' निर्विकार हूँ, यह जानकर, 'न किचिदपि चिन्तयेत्' फिर बिलकुल चिन्तन न करें। फिर क्या करें ? आराम करें और मस्त रहें। आँखें बन्द कर लें। सोने का संकल्प करके लेट जाएँ। फिर कुछ न करें। फिर क्या होगा ? नीद अपने आप आ जाएगी।
'मैं चैतन्य हूँ', 'मैं साक्षी हूँ। मैं यह नहीं हूँ, जो दिखता है। मैं यह नहीं हूँ। सबका प्रकाशक 'साक्षी मैं हूँ'। यहाँ तक तो कर्म है। यहाँ तक तो आप करें। इसके बाद, फिर कुछ न करें। निश्चय के बाद में कुछ न सोचें। जब तुम निश्चय नहीं करोगे, फिर यह लगेगा कि निश्चय न करूँ फिर भी साक्षी हूँ। निश्चय न करूँ, तब भी चेतन हूँ। मैं जन्म का निश्चय कर रहा था; मृत्यु का निश्चय कर रहा था। जब जन्म और मृत्यु के निश्चय का निषेध कर दिया, तो फिर अजन्मा और अविनाशी को कहीं से लाना थोड़े ही है।
'निषेधावधि' उपनिषद् की एक प्रक्रिया है। निषेध की अवधि तक जाओ। जहाँ तक कुछ है-जैसे कि देह है, इन्द्रियाँ हैं, मन है, बुद्धि है, अहंकार है-सबका निषेध करते जाओ। जो-जो ख्याल में आए, सबका निषेध करते जाओ कि ये हम नहीं हैं; ये हम नहीं हैं। अपने विषय में भी कुछ न सोचो। तुम जब सबका निषेध कर दोगे, तो जो बचेगा, उसका तुम्हें अनुभव थोड़े ही करना पड़ेगा। वह तो अपरोक्ष है। काई हटा दो, तो पानी तो मौजूद ही है। इन अनात्म वृत्तियों का निषेध करते ही, साक्षी अपरोक्ष है।
वहाँ साक्षी को लाना नहीं पड़ता। साक्षी को निर्विकार नहीं करना पड़ता। केवल विकार का भ्रम निवृत्त कर दिया, विकारी का तादात्म्य तोड़ दिया, तो अविकारीपना, अजन्मापना, अविनाशीपना, निराकारपना, चैतन्यपना ही है। साधन करके निर्विकारता नहीं लानी है। साधन तो विकार का भ्रम हटाने के लिए था। निर्विकारता तो थी ही। इसलिए, विक्षेप हटाने के लिए, आवरण हटाने के लिए साधन था। साक्षी के लाने का, ब्रह्मता लाने का, अमृत लाने का, निर्विकारता लाने का, चैतन्यपना लाने का कोई साधन नहीं है; क्यों कि वह तो मौजूद ही है। इसलिए, हम लोग मानते हैं कि निर्विकार होने के लिए साधन नहीं करना है।
तुममें अविद्या के कारण अनात्माभिमान है। उस अनात्मा के अभिमान को, अविद्या के अज्ञान को, हटाने के लिए ब्रह्मविद्या का श्रवण करना है। ब्रह्म पाने के लिए साक्षी होने के लिए, अखण्ड, अनन्त, अनादि के जानने के लिये कोई श्रम नहीं करना है। वह तो तुम्हारा स्वभाव है। वह तो तुम्हारा अस्तित्व है।
घड़े के कारण मिट्टी को लगता था कि 'मैं' जन्मी हूँ, 'मैं' फूट जाऊँगी, 'मैं' मर जाऊँगी। यदि घड़ेपन का भ्रम हटा दें, तो मिट्टी को सत् नहीं करना पड़ेगा; अविनाशी या अजन्मा नहीं करना पड़ेगा। क्या घड़े के जन्म के पहले से और घड़े की मृत्यु के बाद तक, कोई और रहता है? घटपन का जो अध्यास उसमें हो रहा था और घटपन के अध्यास से जो मिट्टी में जन्म और मृत्यु लग रही थी, सिर्फ उस भ्रम को हटा दिया है। मिट्टी तो अजन्मा, अविनाशी, अविकारी ही है, उसे बनाना नहीं है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!
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