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शनिवार, 8 मार्च 2025

"वेदान्त का सिद्धान्त" (भाग-1)

"वेदान्त का सिद्धान्त" (भाग-1)

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

वेदान्त का सिद्धान्त, अनुकूल वृत्तियों का प्रवाह चलाना और प्रतिकूल वृत्तियों का तिरस्कार करना है। अनात्म संसाराकार वृत्तियों का, देहात्मक प्रवृत्तियों का, मैं शरीर हूँ, जन्मा हूँ, मर जाऊँगा, ऐसी वृत्तियों का तिरस्कार करना है। मैं जन्म-मरण रहित हूँ और विकार रहित हूँ, ऐसी वृत्तियों का सत्कार करना है। सत्कार और तिरस्कार को भी समझना है। यों ही तिरस्कार नहीं करना है। क्या तुम्हें मृत्यु पसन्द है? यदि नहीं, तो मृत्यु का ख्याल क्यों करते हो ? यदि मरना पसन्द नहीं है, तो मरने वालों के साथ रिश्ता क्यों करते हो? अपनी वृत्तियों का रिश्ता ही उनके साथ न करो। लोग अपनी बेटी का व्याह देख सुनकर करते हैं। आप अपनी वृत्तियों का सम्बन्ध उन विजातीय लोगों के साथ, विजातीय शरीरों के साथ, जो जड़ हैं और बदलने वाले हैं; न करें। आपको जीवन तो पसन्द है अविकारी और वृत्ति का ब्याह कर रहे हैं विकारी से ।

अनात्म वृत्तियाँ तिरस्कार के योग्य है। तिरस्कार के योग्य होने का मतलब यह नहीं होता कि किसी की व्यर्थ निन्दा करना। हमको तिरस्कार का यह अर्थ पसन्द नहीं है। हमे वह पसन्द नहीं है, ये ही उसका तिरस्कार है। मृत्यु से जुड़ना, जन्म से जुड़ना, विनाशी से जुड़ना और विकार से जुड़ना हमें पसन्द नहीं है। ऐसा हमें स्वभाव से ही प्रिय नहीं है। जो हमारा स्वभाव नहीं है, उसके साथ 'मैं पन' का रिश्ता नहीं करना है। जो हमें पसन्द है, उसका कभी त्याग नहीं करना है। हमें सतत् प्रवाह, सतत् विचार और सतत् वृत्ति पसन्द नहीं है। मरने वाले से यह आशा करना कि वह यह वृत्ति बना ले कि 'मैं नहीं मरता, उचित नहीं है। मान लो कि कोई व्यक्ति, जिसका शरीर काला है, वह शीशे में देख रहा है। क्या वह यह निश्चय कर पायेगा कि वह काला नहीं है।

हम यह निश्चय भी करना चाहें कि हम जन्मते-मरते नहीं हैं; तो इस निश्चय के लिए भी कोई आधार चाहिए। यह साँप नहीं है रस्सी है, यह निश्चय कैसे कर पाओगे ? प्रकाश से और देखकर ही निश्चय कर पाओगे। एक बार यह दिखना चाहिए कि वह क्या है? यदि, एक बार उसे यह दिख जाए कि वह रस्सी है, तो यह निश्चय हो ही जाएगा कि नहीं? दिख जाने के बाद तो यह निश्चय हो ही जाएगा कि वह रस्सी है। मान लो कि बिना देखे ही निश्चय हो जाए कि वह रस्सी है। अभी तक तो साँप दिखता है। अब यह निश्चय करो कि वह रस्सी है। पहले क्या होना चाहिए? पहले निश्चय होना चाहिए कि पहले दिखना चाहिए?

सभी महात्मा यह निश्चय कराते हैं कि तुम ब्रह्म हो। वे कहते हैं कि यह निश्चय करना है कि तुम ब्रह्म हो। हमें दिख तो यह रहा है कि हम मर जाएँगे; फिर, अविनाशी होने का निश्चय कैसे कर लें? हम विकारों से मरे जा रहे हैं और निर्विकार होने का निश्चय कर ले? गड़बड़ तो यही है। पता नहीं, वे कैसे निश्चय करवा देते हैं? ये गुरू लोग भी धन्य हैं, जो ऐसा निश्चय करा देते हैं। इसलिए, वर्षों निश्चय कराने पर भी, सारे निश्चय का दिवाला निकल जाता है; क्योंकि, निश्चय का आधार ही नहीं है।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

शेष दूसरे भाग में

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