"वस्तविकता का स्वभाव: ब्रह्म और माया"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
हम जिस दुनिया को रोज़ अनुभव करते हैं — रिश्ते, घटनाएँ, सुख-दुख, जीवन और मृत्यु — क्या वह वास्तव में सत्य है? या यह सब कुछ किसी गहरे, अदृश्य सत्य की सतही छाया मात्र है? वेदांत दर्शन इस प्रश्न का एक अद्भुत उत्तर देता है, और इसी उत्तर की कुंजी हैं – ब्रह्म और माया।
वेदांत कहता है कि इस सम्पूर्ण जगत का मूल कोई वस्तु या व्यक्ति नहीं, बल्कि एक अखंड चेतना है – जिसे ब्रह्म कहा गया है। ब्रह्म न किसी रूप में बंधा है, न किसी नाम से। यह सत् (अस्तित्व), चित् (चेतना) और आनंद (पूर्णता) का शुद्ध स्वरूप है। यह न पैदा होता है, न मिटता है, न बदलता है – बस है।
उपनिषदों में कई बार कहा गया है – "अहं ब्रह्मास्मि" (मैं ही ब्रह्म हूँ) और "तत्त्वमसि" (तू वही है)। इसका अर्थ है कि जो आत्मा हमारे भीतर है, वही ब्रह्म है। अंतर केवल अज्ञान का है। जब यह अज्ञान मिटता है, तब हम जान पाते हैं कि हम कभी बंधे ही नहीं थे – बस एक भ्रम में जी रहे थे।
पर अगर ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, तो यह बहुरूप संसार, भिन्नता, पीड़ा और परिवर्तन कहाँ से आते हैं? इसका उत्तर है – माया।
माया वह शक्ति है जो ब्रह्म की अखंडता पर विविधता का पर्दा डाल देती है। यह वह शक्ति है जो एक ही चेतना को अनेक रूपों में दिखाती है – जैसे सपना, जो सोते समय असली लगता है लेकिन असल में कुछ नहीं होता।
माया न पूरी तरह सत्य है, न पूरी तरह असत्य। यह अनिर्वचनीय है – जिसे शब्दों में पूर्ण रूप से नहीं बताया जा सकता। यह तभी तक प्रभावी है जब तक आत्मा को अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान नहीं हो जाता।
हम जिस दुनिया में रहते हैं, वह माया की एक अद्भुत रचना है। इसे आप ऐसे समझिए – जैसे एक फिल्म पर्दे पर चल रही हो। फिल्म में सैकड़ों दृश्य होते हैं, लेकिन पर्दा कभी बदलता नहीं। इसी तरह, ब्रह्म उस पर्दे की तरह है, और माया उस प्रोजेक्टर की जो जीवन के दृश्य बनाती है।
वेदांत हमें यह नहीं कहता कि संसार झूठा है, बल्कि यह समझाता है कि यह स्थायी नहीं है, इसलिए अंतिम सत्य नहीं है। यह ठीक वैसा ही है जैसे सोने से बने गहनों में अलग-अलग डिजाइन हो सकते हैं, पर सभी गहनों का सार तो सोना ही होता है।
माया का असर तभी तक है जब तक अज्ञान बना रहता है। जब हम यह मान लेते हैं कि हम शरीर, मन या नाम हैं – तब हम माया में बंधे रहते हैं। लेकिन जैसे ही यह अज्ञान मिटता है, जैसे ही हमें आत्मज्ञान होता है, माया की चादर हटने लगती है।
वेदांत बताता है कि आत्मज्ञान पाने के लिए चार कदम ज़रूरी हैं – श्रवण (सुनना), मनन (चिंतन करना), निदिध्यासन (ध्यान से आत्मसात करना), और अंत में साक्षात्कार (सीधी अनुभूति)। जब यह ज्ञान स्थिर हो जाता है, तो व्यक्ति माया से परे चला जाता है – और यही है मुक्ति।
जिसने ब्रह्म को जान लिया, उसके लिए यह संसार अब बंधन नहीं रह जाता। वह व्यक्ति संसार में रहता है, काम करता है, लेकिन उसमें उलझता नहीं। वह जानता है कि यह सब एक लीला है – ब्रह्म की अभिव्यक्ति।
ऐसे व्यक्ति को जीवन्मुक्त कहते हैं – जो जीते जी ही मुक्त हो चुका होता है। वह न सुख से डोलता है, न दुख से टूटता है। उसकी दृष्टि में सभी एक हैं – सबमें वही एक आत्मा बसती है। यही है अद्वैत का अनुभव – जहाँ कोई भेद नहीं रहता, केवल एकता का आनंद होता है।
अंततः, ब्रह्म और माया की समझ केवल दार्शनिक ज्ञान नहीं, बल्कि जीवन को देखने की एक नयी दृष्टि है। जब हम इस दृष्टि को अपनाते हैं, तो हमारी पहचान, हमारे संघर्ष, और हमारा उद्देश्य – सब कुछ एक नयी रोशनी में दिखाई देने लगता है। यह यात्रा है भ्रम से बोध की ओर, माया से ब्रह्म की ओर – और यही सच्चा आत्मबोध है।