"वेदान्त में ईश्वर की अवधारणा"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
अद्वैत वेदांत में ईश्वर की अवधारणा अत्यंत गूढ़ और दार्शनिक है, जो पारंपरिक भक्ति मार्ग की ईश्वर कल्पना से भिन्न है। सामान्यतः ईश्वर को सगुण, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक सत्ता के रूप में देखा जाता है जो सृष्टि की रचना करता है, उसका पालन करता है और विनाश करता है। परंतु अद्वैत वेदांत इस पारंपरिक दृष्टिकोण को एक व्यापक, सूक्ष्म और गहन रूप में प्रस्तुत करता है। अद्वैत वेदांत के अनुसार, ईश्वर, जिसे ईश्वर या ईश्वरा कहा जाता है, वास्तव में ब्रह्म ही है जो मायाशक्ति से युक्त होकर जगत की रचना करता है। यह मायाशक्ति ब्रह्म की अविद्या नहीं है, बल्कि उसकी अनिर्वचनीय शक्ति है जो ब्रह्म को सगुण रूप में प्रकट करती है। इस प्रकार ईश्वर न तो ब्रह्म से अलग है और न ही उससे पूर्णतः एक। वह ब्रह्म का व्यावहारिक (व्यवहारीक) रूप है, जो उपाधियों से युक्त होकर कार्य करता है।
जब हम सृष्टि, पालन और संहार जैसे कार्यों को देखते हैं, तब हमें एक नियंता की आवश्यकता प्रतीत होती है। यही नियंता ईश्वर है, जो समस्त जीवों के कर्मों के अनुसार उन्हें फल प्रदान करता है और समस्त जगत का संचालन करता है। अद्वैत वेदांत ईश्वर को 'सगुण ब्रह्म' के रूप में स्वीकार करता है, अर्थात् ऐसा ब्रह्म जो नाम, रूप और गुणों से युक्त है। वह सृष्टिकर्ता है, परंतु स्वयं अजन्मा और अविनाशी है। उपनिषदों में कहा गया है कि ब्रह्म ही ईश्वर के रूप में प्रकट होता है, जैसे एक ही सोना विभिन्न आभूषणों का रूप ले सकता है, वैसे ही ब्रह्म ही समस्त विश्व का आधार बनकर ईश्वर के रूप में कार्य करता है। परंतु यह ईश्वर भी, ब्रह्म की ही एक प्रतीति है, जो माया के कारण प्रतीत होता है। जब माया का आवरण हट जाता है, तब ब्रह्म ही एकमात्र सत्य के रूप में प्रकट होता है और ईश्वर तथा जीव का भेद समाप्त हो जाता है।
अद्वैत वेदांत में यह स्पष्ट किया गया है कि ईश्वर और जीव के बीच का भेद केवल अविद्या के कारण है। जब जीव यह मानता है कि वह शरीर, मन और इंद्रियों का सम्मिश्रण है, तब वह स्वयं को ईश्वर से अलग अनुभव करता है। परंतु जब वह आत्मज्ञान प्राप्त करता है, तब उसे यह अनुभूति होती है कि ईश्वर और वह स्वयं एक ही ब्रह्म हैं। यह एकता की अनुभूति ही अद्वैत का सार है। अद्वैत वेदांत के अनुसार, ईश्वर, जीव और जगत—तीनों की सत्यता केवल व्यावहारिक दृष्टिकोण से है। पारमार्थिक दृष्टि से केवल ब्रह्म ही सत्य है। जैसे स्वप्न में अनेक दृश्य और पात्र प्रतीत होते हैं, परंतु जाग्रति में केवल मन ही उनका आधार होता है, वैसे ही यह सारा जगत और ईश्वर की सत्ता भी ब्रह्म में ही अंतर्भूत है। यह ब्रह्म न तो सगुण है, न निर्गुण; वह सभी उपाधियों से परे, निराकार, अकल्पनीय, और अनंत है।
ईश्वर की यह अवधारणा भक्ति और ज्ञान के बीच सेतु का कार्य करती है। प्रारंभिक साधना में भक्त ईश्वर को सगुण रूप में पूजता है, उससे प्रार्थना करता है, और उसे ही सर्वस्व मानता है। यह भक्ति साधक के मन को शुद्ध करती है, अहंकार को नष्ट करती है, और अंततः उसे ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण की ओर ले जाती है। यह समर्पण ही ज्ञान के उदय का कारण बनता है। जब भक्ति पूर्णतः परिपक्व हो जाती है, तब साधक यह जानता है कि जिस ईश्वर की वह पूजा कर रहा था, वह वास्तव में उसी का आत्मस्वरूप है। तब सगुण ईश्वर का स्थान निर्गुण ब्रह्म ले लेता है और ज्ञान की पूर्णता प्राप्त होती है। इस प्रकार अद्वैत वेदांत में ईश्वर की पूजा एक साधन है आत्मज्ञान की प्राप्ति का।
ईश्वर की अद्वैत अवधारणा में यह भी स्पष्ट किया गया है कि ईश्वर का अस्तित्व केवल अविद्या के स्तर तक सीमित है। जब ज्ञान होता है, तब ईश्वर का सगुण रूप लय को प्राप्त होता है और केवल निर्गुण ब्रह्म ही शेष रह जाता है। इसका तात्पर्य यह नहीं कि ईश्वर असत्य है, बल्कि यह कि वह केवल ज्ञान से पहले तक का सत्य है। जैसे किसी अंधकारपूर्ण कक्ष में रस्सी को साँप समझ लिया जाता है और प्रकाश होने पर रस्सी का ही अस्तित्व ज्ञात होता है, वैसे ही जब तक ज्ञान नहीं होता, तब तक ईश्वर, जगत और जीव के भेद यथार्थ प्रतीत होते हैं। परंतु ज्ञान होने पर यह सब ब्रह्म की लीला मात्र प्रतीत होते हैं। यह दृष्टिकोण भक्त और ज्ञानी, दोनों के लिए अत्यंत सहायक है, क्योंकि यह उन्हें उनके मार्ग के अनुसार सत्य की ओर अग्रसर करता है।
अंततः, अद्वैत वेदांत का ईश्वर वह चेतन तत्त्व है जो समस्त ब्रह्मांड में व्याप्त है, जो प्रत्येक जीव के हृदय में आत्मा के रूप में विराजमान है, और जो अपने वास्तविक स्वरूप में स्वयं ब्रह्म है। यह ब्रह्म ही सब कुछ है—वह जो देख रहा है, जो देखा जा रहा है, और देखने की क्रिया भी वही है। यह त्रैतीय भेद का अभाव ही अद्वैत की पुष्टि करता है। ईश्वर का यह स्वरूप न तो किसी विशेष रूप, धर्म, या पंथ से सीमित है, न ही वह केवल पूजा या साधना का विषय है। वह तो स्वयं हमारी आत्मा का स्वरूप है। उसे बाहर ढूँढने की आवश्यकता नहीं, बल्कि अपने भीतर, अपने ही आत्मस्वरूप में उसका अनुभव करना ही अद्वैत वेदांत का अंतिम उद्देश्य है। यही वह जागृति है जिसमें ईश्वर, जीव और जगत के भेद समाप्त हो जाते हैं और केवल एक ब्रह्म रह जाता है, जो नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्त है। यही है ईश्वर की अद्वैत व्याख्या—एकता की पराकाष्ठा, ज्ञान की चरमावस्था, और आत्मानुभूति का सर्वोच्च रूप।