हम जिस संसार में रहते हैं, वहाँ प्रतिक्षण द्वैत का अनुभव होता है—मैं और तुम, सुख और दुःख, अच्छा और बुरा, जीवन और मृत्यु। यह द्वैत का अनुभव ही हमारे सभी संबंधों, विचारों और व्यवहारों का आधार बनता है। परन्तु अद्वैत वेदांत इस द्वैत को एक भ्रम मानता है, एक ऐसी मायावी परत जो हमारे सच्चे अस्तित्व पर ओढ़ दी गई है। आत्मा और ब्रह्म एक ही हैं—यह अद्वैत वेदांत का मूल सिद्धांत है। किंतु जब यह आत्मा अपने को शरीर, मन, इंद्रियों या अहंकार से जोड़ लेती है, तब 'मैं' और 'दूसरे' का भाव उत्पन्न होता है। यही द्वैत का प्रारंभ है। इस भ्रम का कारण है अविद्या—वह अज्ञान जो आत्मा के स्वभाव को भूलकर उसे सीमित सत्ता के रूप में देखने पर विवश करता है। ब्रह्म, जो निराकार, अकर्ता, सर्वव्यापक और एकमात्र सत्य है, वह अज्ञान के कारण नाम-रूपों के विविध रूपों में विभाजित प्रतीत होता है। जैसे हलकी रौशनी में रस्सी को साँप समझ लिया जाए, वैसे ही ब्रह्म में संसार की भिन्नता का प्रक्षेप किया जाता है।
इस द्वैत का निर्माण दो प्रमुख शक्तियों से होता है—माया और अविद्या। माया ब्रह्म की ही शक्ति है, जो इस एकता को अनेकता के रूप में प्रकट करती है। यह शक्ति इतनी गूढ़ है कि इसे समझना और उससे पार पाना अत्यंत कठिन है। यह न तो पूरी तरह अस्तित्ववान है, न ही पूरी तरह असत्। यह अनिर्वचनीय है, जिसकी तुलना स्वप्न या मृगतृष्णा से की जा सकती है। व्यक्तिगत स्तर पर यह माया अविद्या का रूप ले लेती है, जहाँ आत्मा शरीर, मन, और अहंकार से तादात्म्य स्थापित कर लेती है। तब वह कर्म करता है, फल भोगता है, जन्म और मृत्यु के चक्र में बँध जाता है, और अपने वास्तविक स्वरूप से दूर होता चला जाता है। इस प्रकार द्वैत का भ्रम केवल दार्शनिक अवधारणा नहीं है, बल्कि यह जीवन की समस्त पीड़ा, संघर्ष, और भ्रम का मूल कारण है। जब आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप को भूलकर सीमित सत्ता के रूप में स्वयं को देखने लगती है, तभी असत्य का यह विशाल ढाँचा निर्मित होता है।
इस द्वैत का प्रभाव हमारे मानसिक, भावनात्मक और आत्मिक जीवन पर गहरा पड़ता है। हम स्वयं को एक सीमित प्राणी समझते हैं—हमें मृत्यु का भय सताता है, सुख की लालसा और दुःख का विरोध बना रहता है, और हम अपनी असुरक्षा को दूसरे पर आरोपित कर देते हैं। हम प्रेम करते हैं, पर स्वार्थवश; हम सेवा करते हैं, पर मान-सम्मान की अपेक्षा से; हम ज्ञान चाहते हैं, पर अपने अहंकार की पुष्टि हेतु। ये सभी व्यवहार द्वैत के भ्रम से उत्पन्न होते हैं। अद्वैत वेदांत कहता है कि मुक्ति किसी नये वस्तु की प्राप्ति नहीं है, बल्कि उस अज्ञान का विनाश है जो हमें असत्य से बाँधे हुए है। जब यह अज्ञान समाप्त होता है, तब आत्मा को यह साक्षात्कार होता है कि वह सदा से मुक्त थी, है, और रहेगी। यह मुक्ति केवल तर्क का विषय नहीं, बल्कि एक जीवंत अनुभव है, जो आत्मा के अंतर्मन में घटित होता है। यह अनुभव इतना शक्तिशाली होता है कि उसके बाद व्यक्ति के जीवन में पूर्ण रूप से परिवर्तन आ जाता है।
इस अद्वैतिक अनुभव तक पहुँचने की प्रक्रिया वेदांत में तीन चरणों में बताई गई है—श्रवण, मनन और निदिध्यासन। श्रवण का अर्थ है शास्त्रों, विशेषकर उपनिषद, भगवद गीता और ब्रह्मसूत्र जैसे ग्रंथों को योग्य गुरु के माध्यम से सुनना और समझना। यह केवल बौद्धिक अभ्यास नहीं है, बल्कि आत्मा के गहनतम स्तर पर सत्य की पहली झलक प्राप्त करना है। इसके बाद आता है मनन—जो सुना गया है, उस पर गहन विचार करना, शंकाओं का समाधान करना, और ज्ञान को स्थिर करना। अंतिम चरण है निदिध्यासन—जहाँ विचारों की गहराइयों में जाकर निरंतर ध्यान और चिंतन द्वारा उस सत्य में स्थिर हो जाना। यह साधना केवल मानसिक अभ्यास नहीं, बल्कि एक आंतरिक रूपांतरण है, जहाँ धीरे-धीरे शरीर, मन, और जगत से तादात्म्य हटता है और आत्मा अपने ब्रह्मरूप में स्थित हो जाती है। जैसे सूरज के उदय के साथ अंधकार स्वयं समाप्त हो जाता है, वैसे ही आत्मा का ब्रह्मरूप ज्ञान के प्रकाश से अज्ञान का विनाश हो जाता है।
जब द्वैत का यह भ्रम समाप्त हो जाता है, तब जो शेष रहता है वह है शुद्ध चेतना—निर्विकल्प, निराकार, और शाश्वत। यह कोई विशेष योगिक अवस्था नहीं है जो केवल ध्यान में ही उपलब्ध हो, बल्कि यह सभी अनुभवों की पृष्ठभूमि है, जो सदैव विद्यमान है। यह वही चेतना है जो स्वप्न, जाग्रत और सुषुप्ति—तीनों अवस्थाओं में रहती है, किंतु जिनसे हम सामान्यतः अनभिज्ञ रहते हैं। जब यह चेतना प्रकट होती है, तब ज्ञानी संसार को एक लीला रूप में देखता है—एक खेल जो चेतना की अभिव्यक्ति मात्र है। तब संसार को अस्वीकार नहीं किया जाता, बल्कि उसे उसकी यथार्थता में देखा जाता है। ज्ञानी राग-द्वेष से परे होता है, न सुख में डोलता है, न दुःख में टूटता है। वह प्रेम करता है, पर आसक्ति से नहीं; कार्य करता है, पर फल की चिंता से नहीं। उसका जीवन साक्षी भाव में स्थित होता है—जहाँ वह सब कुछ करता है, परंतु कुछ भी उससे चिपकता नहीं।
जब आत्मा अद्वैतिक चेतना में स्थित हो जाती है, तब उसका जीवन स्वतः ही मुक्त हो जाता है। न वह भविष्य की चिंता करता है, न भूतकाल के बोझ को ढोता है। उसका प्रत्येक कार्य सहज, स्वाभाविक, और करुणा से पूर्ण होता है। वह न किसी से ईर्ष्या करता है, न किसी पर अधिकार जताता है। उसका प्रेम वैश्विक होता है—क्योंकि वह जानता है कि हर जीव में वही एक ब्रह्म निवास कर रहा है। जीवन तब संघर्ष नहीं, बल्कि एक उत्सव बन जाता है—हर क्षण चेतना की झलक देता हुआ। ज्ञानी व्यक्ति स्थितप्रज्ञ होता है—जिसकी बुद्धि स्थिर होती है, जो निंदा-स्तुति, लाभ-हानि, सफलता-असफलता से अप्रभावित रहता है। यह स्थिति किसी विशेष योगी या संन्यासी की नहीं, बल्कि प्रत्येक जिज्ञासु की जन्मसिद्ध अधिकार है। केवल सतत साधना, जिज्ञासा, और आत्मविचार की आवश्यकता है। जब यह ज्ञान दृढ़ हो जाता है, तब द्वैत की पूरी संरचना स्वप्नवत प्रतीत होती है, और आत्मा को अपने शाश्वत स्वरूप का अनुभव होता है।