"वेदांत में सगुण और निर्गुण भक्ति"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
भक्ति साधना का ऐसा महान मार्ग है, जिसमें साधक अपने सम्पूर्ण हृदय से परम सत्य की ओर उन्मुख होता है। वेदांत दर्शन में भक्ति को दो स्वरूपों में समझाया गया है — सगुण भक्ति और निर्गुण भक्ति। सगुण भक्ति वह है जिसमें ईश्वर को नाम, रूप और गुणों से युक्त मानकर उपासना की जाती है। भगवान श्रीकृष्ण गीता (12.2) में कहते हैं — "मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते। श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः॥" — अर्थात जो भक्त निरंतर मन को मुझमें लगाकर श्रद्धा सहित मेरी उपासना करते हैं, वे मेरे मत में श्रेष्ठ योगी हैं। यहाँ भगवान सगुण रूप में भक्ति करने को सहज और ग्राह्य बताते हैं। दूसरी ओर, निर्गुण भक्ति में ईश्वर को निराकार, निर्विकल्प और निर्विशेष रूप में समझा जाता है। उपनिषदों में ब्रह्म के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा गया है — "नेति नेति" (बृहदारण्यक उपनिषद 2.3.6) — अर्थात ब्रह्म न तो यह है, न वह है; वह समस्त उपाधियों से परे है। साधक अपने प्रारंभिक अवस्था में चित्त की स्थिरता के लिए सगुण भक्ति करता है और धीरे-धीरे निर्गुण भक्ति की ओर बढ़ता है। विवेकचूडामणि (श्लोक 31) में आद्य शंकराचार्य कहते हैं — "दुर्लभं त्रयमेवैतद्दैवानुग्रहहेतुकम्। जन्म मानुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुषसंश्रयः॥" — मनुष्य जन्म, मोक्ष की तीव्र इच्छा और महापुरुष का संग — ये तीनों दुर्लभ हैं और दैवी कृपा से प्राप्त होते हैं। यही साधक के जीवन में भक्ति के सही मार्ग की ओर संकेत करते हैं।
सगुण भक्ति के मार्ग में भक्त भगवान के किसी विशेष रूप — जैसे श्रीराम, श्रीकृष्ण, देवी दुर्गा, शिव आदि — का ध्यान करता है। इस साधना में प्रेम, श्रद्धा और सम्पूर्ण आत्म-समर्पण का स्थान होता है। गीता (9.22) में भगवान कहते हैं — "अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥" — जो भक्त अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हैं और मेरी उपासना करते हैं, उनके योगक्षेम का वहन मैं स्वयं करता हूँ। सगुण भक्ति की महिमा यही है कि वह साधक को प्रारंभ में एक ठोस आधार देती है और चित्त को एकाग्र करती है। आत्मबोध ग्रंथ में भी कहा गया है — "सर्वदा सर्वभावेन निश्चिन्तय परमेश्वरम्।" — अर्थात सर्वदा, सर्वभाव से परमेश्वर का चिन्तन करो। सगुण उपासना साधक को सहजता से मन, वाणी और कर्म में पवित्रता लाने में सहायता करती है। दृष्टि-दृश्य-विवेक ग्रंथ में भी साधना के प्रारंभिक स्तर पर इन्द्रियों को संयमित करने और चित्त को एक प्रतीक पर स्थिर करने की आवश्यकता बताई गई है। सगुण भक्ति इस साधना का सबसे सरल और शक्तिशाली माध्यम बनती है।
निर्गुण भक्ति उच्चतर साधना है, जिसमें साधक ब्रह्म को निराकार, निर्विकल्प, अनन्त, अचल और सर्वव्यापक सत्ता के रूप में जानता है। इस मार्ग में कोई मूर्ति, कोई नाम या विशेष रूप की आवश्यकता नहीं होती। मुंडक उपनिषद (2.2.5) में वर्णित है — "नायमात्मा प्रवचनानेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।" — आत्मा न तो प्रवचन से, न ही तीव्र बुद्धि से, न ही अधिक शास्त्राध्ययन से प्राप्त होता है; वह केवल उसी को प्राप्त होता है जिसे वह स्वयं को प्रकट करना चाहता है। निर्गुण भक्ति में साधक अहंकार और उपाधियों को त्याग कर स्वस्वरूप का साक्षात्कार करता है। ब्रह्मसूत्र (1.1.4) में स्पष्ट कहा गया है — "तत्तु स्वयं साधन्यात्।" — अर्थात वह (ब्रह्म) स्वयं का ही साध्य है। निर्गुण भक्ति में साधक यह अनुभव करता है कि 'मैं' और 'ईश्वर' के बीच कोई भेद नहीं है, केवल एक अद्वितीय सत्ता है। विवेकचूडामणि (श्लोक 254) में शंकराचार्य कहते हैं — "ब्रह्मैवेदं विश्वमिदं वरिष्ठम्।" — अर्थात यह सम्पूर्ण विश्व ही ब्रह्म है।
यद्यपि सगुण और निर्गुण भक्ति बाह्य दृष्टि से भिन्न प्रतीत होती हैं, किंतु वे दोनों एक ही लक्ष्य की ओर ले जाती हैं — ब्रह्म की अनुभूति। गीता (12.3-4) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं — "ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते। सर्वत्रगमचिन्त्यंच कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥ संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः। ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः॥" — जो भक्त अक्षर, अव्यक्त, सर्वत्रगामी, अचल और ध्रुव ब्रह्म की उपासना करते हैं, वे भी अंततः मुझे ही प्राप्त करते हैं। इस प्रकार, सगुण भक्ति साधक को चित्तशुद्धि प्रदान करती है और निर्गुण भक्ति उसे आत्मसाक्षात्कार के उच्चतम शिखर तक पहुँचाती है। आत्मबोध में भी कहा गया है — "चित्तस्य शुद्धये कर्म न तु वस्तूपलब्धये।" — अर्थात कर्म (भक्ति) का उद्देश्य वस्तु (ब्रह्म) की प्राप्ति नहीं, अपितु चित्त की शुद्धि है। यही शुद्ध चित्त निर्गुण ब्रह्म को जानने का माध्यम बनता है।
विवेकचूडामणि और दृष्टि-दृश्य-विवेक के अनुसार, जब साधक "दृश्य" को "दृष्टा" से पृथक देख पाता है, तब सच्ची निर्गुण भक्ति आरंभ होती है। दृष्टि-दृश्य-विवेक कहता है — "रूपाद्यज्ञानवद्रूपं दृश्यत्वात् विकल्प्यते।" — अर्थात रूप आदि जानने योग्य वस्तुएँ दृष्टि का विषय हैं, परंतु जानने वाला दृष्टा साक्षी स्वरूप है। इसी दृष्टा में स्थित रहना ही निर्गुण भक्ति का चरम रूप है। ब्रह्म ही सत्य है, जगत मिथ्या है — इस भाव से दृढ होकर साधक अपने भीतर के अनन्त, अचिन्त्य ब्रह्म का साक्षात्कार करता है। ब्रह्मसूत्र (4.1.3) में भी कहा गया है — "आवृत्त्यधिकारात्।" — अर्थात जब अभ्यासपूर्वक चित्त पूर्णरूपेण ब्रह्म में स्थित हो जाता है, तब मुक्ति का अनुभव होता है। इस प्रकार, साधक के लिए आवश्यक है कि वह सगुण भक्ति से प्रारंभ कर, चित्त को शुद्ध कर, निर्गुण भक्ति के शुद्ध पथ पर अग्रसर हो।
अंततः, सगुण और निर्गुण भक्ति में कोई विरोध नहीं है, वरन् वे साधक की योग्यता और साधना के स्तर के अनुसार एक ही अखंड सच्चिदानंद ब्रह्म की प्राप्ति के विभिन्न सोपान हैं। आरंभ में जब चित्त चंचल होता है, तब सगुण भक्ति सहायक होती है; जब चित्त शुद्ध और एकाग्र हो जाता है, तब निर्गुण भक्ति सहज हो जाती है। गीता (7.16-17) में भगवान कहते हैं — "चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन। आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ॥" — अर्थात चार प्रकार के पुण्यात्मा जन मेरी भक्ति करते हैं — आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी। इनमें भी ज्ञानी श्रेष्ठ है जो परमात्मा को ही सर्वस्व समझता है। अतः वेदांत का संदेश स्पष्ट है कि भक्ति का कोई एक मात्र रूप नहीं है; सच्ची भक्ति वही है जो साधक को द्वैत से अद्वैत की ओर, सीमितता से अनन्तता की ओर, अज्ञान से ज्ञान की ओर ले जाए। उपनिषदों के वचन, विवेकचूडामणि का विवेक, आत्मबोध की साधना, गीता का योग और ब्रह्मसूत्रों का निष्कर्ष — सभी यही उद्घोष करते हैं कि सगुण से निर्गुण की यात्रा ही भक्ति की परिपूर्णता है।