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रविवार, 27 अप्रैल 2025

"अद्वैत वेदांत में निराकार ब्रह्म की भक्ति"


"अद्वैत वेदांत में निराकार ब्रह्म की भक्ति"


ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ


यह विषय अत्यंत सूक्ष्म है, क्योंकि भक्ति को सामान्यतः साकार उपासना के रूप में ही देखा जाता है, जबकि अद्वैत वेदांत में भक्ति निराकार ब्रह्म के प्रति पूर्ण समर्पण का स्वरूप लेती है। उपनिषदों में स्पष्ट रूप से कहा गया है — “नेति नेति” (बृहदारण्यक उपनिषद 2.3.6), अर्थात ब्रह्म न तो यह है, न वह। यह निराकार, निरगुण और अजन्मा है। फिर भी, जब जीव इस ब्रह्म को जानने की तीव्र उत्कंठा से प्रेरित होकर अपने भीतर की संपूर्ण आसक्तियों को त्याग देता है, तो वह भक्ति बन जाती है। ‘भक्तिर्ज्ञानदेवता’ — यह अद्वैत का मूल मंत्र है। भक्ति और ज्ञान एक ही सत्य की दो धाराएँ हैं। जब विवेक द्वारा यह बोध हो जाता है कि आत्मा ही ब्रह्म है, तब वही भक्ति ब्रह्म में अखंड श्रद्धा का रूप लेती है। अतः वेदांत में भक्ति का अर्थ है — निराकार ब्रह्म में अटल श्रद्धा, उसकी सत्ता में पूर्ण समर्पण और अहंकार का पूर्ण विलय।


श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है — “मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु” (गीता 9.34)। सामान्यतः यह श्लोक सगुण भक्ति की ओर संकेत करता है, किंतु अद्वैत वेदांत इसकी व्याख्या इस प्रकार करता है कि ‘मन्मना’ का अर्थ है मन को ब्रह्म (मैं) में स्थित करना, ‘मद्भक्त’ का अर्थ है निराकार ब्रह्म में श्रद्धा रखना, ‘मद्याजी’ का अभिप्राय है कि समस्त कर्म ब्रह्मार्पण बुद्धि से किया जाए और ‘मां नमस्कुरु’ का अर्थ है अहंकार का पूर्ण समर्पण। यही अद्वैती भक्ति है — जहाँ भेद की भावना नहीं रह जाती। विवेकचूडामणि में शंकराचार्य स्पष्ट करते हैं — “मुक्तिमिच्छसि चेत्तात, विषयान विषवत्त्यज” (विवेकचूडामणि 76)। यदि तू मुक्ति चाहता है, तो विषयों का त्याग कर। यह त्याग और समर्पण ही भक्ति का स्वरूप है। जहाँ वासनाएं समाप्त होती हैं, वहीं भक्ति का उदय होता है।


आत्मबोध में कहा गया है कि — “ज्ञानं विहाय सर्वत्र, भक्तिरेव गरीयसी” (आत्मबोध)। अर्थात यदि ज्ञान नहीं भी हो, तो केवल भक्ति से भी ब्रह्म की प्राप्ति संभव है, बशर्ते वह भक्ति सच्चे हृदय से की गई हो और उसमें कोई भेदबुद्धि न हो। यहाँ भक्ति का तात्पर्य न तो रूप, राग और रस से है, न ही किसी मूर्ति की उपासना से। यहाँ भक्ति का अर्थ है — आत्मा में स्थित रहना, निरंतर आत्मचिंतन करते रहना। जब कोई साधक ‘दृग्-दृश्य विवेक’ की दृष्टि से देखता है, तो उसे स्पष्ट हो जाता है कि जो देखा जा सकता है वह आत्मा नहीं है। “दृश्यं नात्मा” — यह सूत्र निरंतर स्मरण कराता है कि देह, मन, बुद्धि, यहाँ तक कि भावनाएं भी आत्मा नहीं हैं। जब यह विवेक स्थिर होता है, तो ध्यान उसी अद्वितीय आत्मा पर टिक जाता है — यही भक्ति है। यह उपासना नहीं, उपस्थिति है — जहाँ उपासक और उपास्य का भेद समाप्त हो जाता है।


ब्रह्मसूत्र का प्रथम सूत्र है — “अथातो ब्रह्मजिज्ञासा”। यहाँ ब्रह्मजिज्ञासा कोई तर्कपूर्ण विचार नहीं, बल्कि तीव्र उत्कंठा है — जैसे एक भक्त को अपने ईश्वर के लिए तड़प होती है। यह तड़प जब देह और मन की सीमाओं को लाँघकर केवल ब्रह्म की अनुभूति में परिवर्तित हो जाती है, तभी वह भक्ति कहलाती है। ब्रह्मसूत्र के शंकरभाष्य में भी शंकराचार्य कहते हैं कि ब्रह्म का साक्षात्कार केवल शास्त्रों के अध्ययन या युक्तियों से नहीं, अपितु गुरु की कृपा और अंतःकरण की निर्मलता से होता है — और यह निर्मलता भक्ति से ही आती है। जब मन संपूर्णतः ब्रह्म में निमग्न हो जाता है, तो वहाँ न कोई साधक रह जाता है, न साधन — केवल ब्रह्म की अखंड सत्ता बचती है। यही सर्वोच्च भक्ति है — निर्गुण भक्ति, जो अद्वैत में परम गति देती है।


विवेकचूडामणि में पुनः एक स्थान पर शंकराचार्य कहते हैं — “त्वमेव हि आत्मा सदा साक्षि केवलोऽसि”। तू ही आत्मा है, साक्षी है, एकमात्र अस्तित्व है। यह ज्ञान ही भक्ति का चरम रूप है। जब साधक इस साक्षित्व में स्थित रहता है, तब वह कोई क्रिया नहीं करता, केवल ‘होना’ ही उसकी साधना बन जाती है। यहाँ कोई आराधना नहीं, केवल आराध्य की सत्ता में लीनता है। जैसे दीपक की लौ स्वयं को नहीं देख सकती, वैसे ही आत्मा भी स्वयं को देखने के लिए कोई उपाय नहीं करती — वह केवल ‘है’। यही अद्वैत भक्ति है, जो ज्ञानी की भक्ति कहलाती है। उपनिषदों में भी कहा गया है — “स य एषोऽणिमाऽ आत्मा चतुष्पात्” — यह आत्मा ही वह सूक्ष्म तत्व है, जो सर्वत्र व्याप्त है। उसकी ओर मन का आकर्षण ही भक्ति है।


अंततः, अद्वैत वेदांत की भक्ति पूर्णतः निराकार और अभेदभाव पर आधारित होती है। यह भक्ति न तो किसी नाम में सीमित है, न किसी रूप में। यह तो आत्मा की आत्मा में लीनता है — जैसे जल में जल मिल जाए। जहाँ साधक और साध्य का भेद मिट जाए, वहाँ केवल ब्रह्म ही शेष रह जाता है। वही भक्ति है, वही ज्ञान है, वही मोक्ष है। अतः अद्वैत में भक्ति का मार्ग अलग नहीं, ज्ञान का ही परिष्कृत रूप है। जब ज्ञान भाव से पूरित हो जाता है, तो वह भक्ति कहलाता है; और जब भक्ति विवेक से युक्त होती है, तो वह ज्ञान बन जाती है। इस प्रकार, निराकार ब्रह्म की भक्ति ही वेदांत का सर्वोच्च साधन और साध्य दोनों है। यही उपनिषदों का मर्म, गीता का सार और शंकर की वाणी की गूढ़ता है।


ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 


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