"कर्म कैसे मोक्ष का मार्ग बनता है"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
मनुष्य का संपूर्ण जीवन क्रियाओं से जुड़ा है। शास्त्रों में कहा गया है कि कर्म बंधन का कारण भी बन सकता है और मोक्ष का साधन भी। यह इस पर निर्भर करता है कि कर्म किस भावना से किया जा रहा है। भगवद्गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं – "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।" (गीता 2.47) अर्थात् तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, फल की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए। जब कर्म फल की अपेक्षा से रहित होकर ईश्वर को समर्पित होता है, तब वही कर्म बंधन से नहीं, बल्कि मुक्ति की ओर ले जाता है। यही कर्मयोग का सिद्धांत है। कर्म का उद्देश्य यदि आत्मशुद्धि हो, तो वह साधक को अंतःकरण की निर्मलता प्रदान करता है, जिससे ज्ञान प्राप्ति की भूमि तैयार होती है। "चित्तस्य शुद्धये कर्म न तु वस्तूपलब्धये", यह वाक्य ब्रह्मसूत्र भाष्य में शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित है — कर्म का उद्देश्य वस्तु (ब्रह्म) की प्राप्ति नहीं, बल्कि चित्त की शुद्धि है।
विवेकचूडामणि में शंकराचार्य स्पष्ट करते हैं कि ज्ञान ही मुक्ति का साधन है, किंतु ज्ञान की प्राप्ति बिना चित्तशुद्धि के असंभव है। "कर्म न मुक्तिदं किञ्चित् विधिना वर्णितं श्रुतेः।" (विवेकचूडामणि 11) — कोई भी कर्म स्वयं में मुक्ति नहीं दे सकता, परन्तु वह उपयुक्त स्थिति उत्पन्न करता है जिससे ज्ञान प्राप्त हो सके। जब मनुष्य निष्काम भाव से अपने स्वधर्म का पालन करता है, तो वह धीरे-धीरे राग-द्वेष से ऊपर उठने लगता है। भगवद्गीता में कहा गया है – "योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनञ्जय।" (गीता 2.48) अर्थात् समत्व बुद्धि में स्थित होकर कर्म कर, और आसक्ति का परित्याग कर। यही कर्म को योग का स्वरूप बनाता है। आत्मबोध में भी शंकराचार्य लिखते हैं — "न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः।" (आत्मबोध श्लोक 5) – केवल कर्म, संतान या धन से नहीं, बल्कि त्याग से कुछ साधक अमरत्व (मोक्ष) को प्राप्त करते हैं।
उपनिषदों में कर्म को ज्ञान की भूमिका के रूप में स्वीकार किया गया है। ईशावास्योपनिषद में कहा गया है – "कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः।" (ईशा उपनिषद 2) – मनुष्य को सौ वर्षों तक कर्म करते हुए ही जीने की इच्छा करनी चाहिए, क्योंकि इसी मार्ग से कर्म मनुष्य को बंधन में नहीं डालता। यहाँ स्पष्ट संकेत है कि यदि मनुष्य अपने कर्तव्य को यथोचित भाव से करे, तो वह संसार में रहते हुए भी मुक्ति के मार्ग पर अग्रसर हो सकता है। दृग-दृश्य-विवेक में बताया गया है कि जब साधक दृश्य जगत को आत्मा से भिन्न देखता है और आत्मा को ही सर्वस्व समझकर कर्म करता है, तब वह कर्म उसे बाँधता नहीं। इस दृष्टिकोण से कर्म को करते हुए भी साधक निर्लिप्त रह सकता है। "द्रष्टा दृशिमात्रः शुद्धो बुद्धिसंयोगेन स जीवः।" (दृग-दृश्य-विवेक) – देखनेवाला आत्मा केवल द्रष्टा है, पर बुद्धि के संयोग से वह जीव प्रतीत होता है।
कर्म को मोक्षमार्ग में परिवर्तित करने हेतु आवश्यक है कि साधक उसमें 'कर्तापन' और 'भोक्तापन' का अभाव रखे। गीता में भगवान कहते हैं – "यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।" (गीता 3.9) – यज्ञ (ईश्वर के लिए समर्पण) के भाव से रहित कर्म मनुष्य को बाँधते हैं। इसलिए जब हर कर्म को ईश्वरार्पण करके किया जाता है, तब वह मन को शांत करता है और अहंकार का क्षय करता है। ब्रह्मसूत्र में भी यह बात पुष्ट की गई है – "तदधिगतस्यानुपदेशात्।" (ब्रह्मसूत्र 1.1.4) – जो ब्रह्म को प्राप्त कर चुका है, उसके लिए उपदेश की आवश्यकता नहीं। यह प्राप्ति कर्मों के परिशोधन से आरंभ होती है, जो अंततः आत्मज्ञान तक ले जाती है। इस प्रक्रिया में कर्म पहले उपासना बनते हैं, फिर ध्यान, और अंत में ज्ञान का द्वार खोलते हैं।
जब साधक निरंतर निष्काम कर्म में प्रवृत्त रहता है, तो उसका मन विक्षेप रहित हो जाता है। यह मानसिक स्थिरता आत्मज्ञान के लिए अनिवार्य है। आत्मबोध में शंकराचार्य कहते हैं – "सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म यो वेद निहितं गुहायाम्।" (आत्मबोध) – जो ब्रह्म सत्य, ज्ञान और अनंत है, वह हृदय गुहा में स्थित है, और उसे जाननेवाला ही मुक्त होता है। जब तक चित्त मलिन है, यह अनुभव नहीं हो सकता। इसलिए निष्काम कर्म से चित्त की शुद्धि आवश्यक है। विवेकचूडामणि में कहा गया है – "चित्तस्य शुद्धये कर्म न तु वस्तूपलब्धये।" – यही कारण है कि प्रारंभिक अवस्था में कर्म अत्यंत उपयोगी होते हैं। इनसे साधक शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा और समाधान — इन षट्सम्पत्तियों को विकसित करता है। यह सब आत्मसाक्षात्कार के लिए आधारभूमि बनते हैं।
अंततः यह समझना आवश्यक है कि कर्म स्वयं में न तो बंधन है, न ही मुक्ति। उसका स्वरूप साधक की दृष्टि पर निर्भर करता है। यदि साधक उसे अपने स्वधर्म के रूप में देखता है, और फल की अपेक्षा से रहित होकर करता है, तो वही कर्म उसे ब्रह्मज्ञान की ओर ले जाता है। जब वह "अहं कर्ता" की भावना को त्याग कर "ईश्वर कर्ता" के भाव में स्थित हो जाता है, तब कर्म त्याग का नहीं, साधना का रूप ले लेता है। यह त्याग आत्मा की स्वतंत्रता को प्रकट करता है। उपनिषदों में कहा गया है – "नेति नेति", अर्थात् आत्मा न यह है, न वह – वह तो निरपेक्ष है। जब यह बोध गहराता है कि "मैं कर्ता नहीं हूँ", तब ही कर्म स्वतः मोक्ष का साधन बनता है। इस प्रकार, यदि विवेक, वैराग्य और भक्ति के साथ कर्म किया जाए, तो वह न केवल अन्तःकरण को शुद्ध करता है, अपितु अंततः आत्मज्ञान और मोक्ष की ओर उन्मुख करता है।