"ईश्वर के प्रति समर्पण और अद्वैत में इसकी भूमिका"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
अद्वैत वेदांत में आत्मा और ब्रह्म की एकता का सिद्धांत मुख्य है, जहाँ समस्त जगत को मायिक और असत्य मानते हुए केवल ब्रह्म को ही सत्य स्वीकार किया गया है। इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए आत्मा को अहंकार, ममता और संकल्प-विकल्प से रहित करना आवश्यक है। यह तभी संभव है जब साधक पूर्ण रूप से अपने को ईश्वर के चरणों में समर्पित कर दे। उपनिषदों में कहा गया है – “यस्य नाहं कृते लोको न वेदे कृते नानृते, स आत्मा शुद्धबुद्धिः स्यात्सर्वकर्मविवर्जितः।” अर्थात् जिसकी दृष्टि में न सत्य का बंधन है, न असत्य का, और जो स्वयं को कर्ता नहीं मानता, वही आत्मा शुद्धबुद्धि वाला होता है और समस्त कर्मों से मुक्त होता है। यह समर्पण ही आत्मज्ञान की दिशा में पहला महत्त्वपूर्ण कदम है। भगवद्गीता में भी श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं – “सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।” (गीता 18.66) – सभी धर्मों को त्याग कर तू केवल मेरी शरण में आ जा। इस शरणागति में ही पूर्णता है, क्योंकि यहाँ अहंकार का अंत होता है और आत्मा अपनी मूल स्थिति में प्रतिष्ठित होती है।
विवेकचूडामणि में आद्य शंकराचार्य ने समर्पण को मुक्ति की पूर्व शर्त बताया है। वे कहते हैं – “ईश्वरेण कृपाकृत्वा ब्रह्मविद्या प्रकाश्यते।” अर्थात् ईश्वर की कृपा के बिना ब्रह्मविद्या प्रकाशित नहीं होती। यहाँ ईश्वर कृपा का अभिप्राय केवल बाह्य कृपा से नहीं है, बल्कि जब साधक समर्पण भाव से पूर्ण रूप से अहं को त्याग देता है, तभी उसकी बुद्धि में शुद्धता आती है और वह ब्रह्मविचार के योग्य होता है। समर्पण का यह भाव अहंकार के अंत का प्रतीक है, जो अद्वैत का प्रमुख उद्देश्य है। जब तक ‘मैं’ और ‘मेरा’ बना रहता है, तब तक ब्रह्म की अनुभूति नहीं हो सकती। विवेकचूडामणि में ही एक और स्थान पर कहा गया है – “यावन्न लीयते बुद्धिर्गुणे ब्रह्मणि निर्विके, तावन्न मुक्ति: नास्त्येव ब्रह्मशास्त्रार्थदर्शनात्।” अर्थात् जब तक बुद्धि गुणातीत, निर्विकारी ब्रह्म में लीन नहीं होती, तब तक शास्त्रों के अध्ययन से भी मुक्ति संभव नहीं है। यह लीनता समर्पण के बिना असंभव है।
आत्मबोध में भी स्पष्ट रूप से कहा है कि जब तक मनुष्य अपने को कर्ता मानता है, तब तक वह कर्म के बंधन में ही रहता है। आत्मबोध में कहा गया है – “कर्तृत्वादीनि चात्मत्वे कल्प्यन्तेऽज्ञानतो जनैः।” अर्थात् अज्ञानी लोग आत्मा में ही कर्ता, भोक्ता आदि भावों की कल्पना करते हैं। जब यह अज्ञान दूर होता है और साधक समझता है कि ‘मैं कर्ता नहीं हूँ’, तब वह अपने समस्त कर्मों का फल ईश्वर को समर्पित करता है और उससे मुक्त हो जाता है। यह समर्पण ही आत्मसाक्षात्कार की दिशा में अगला कदम है। इस प्रक्रिया में साधक का मन धीरे-धीरे शुद्ध होता है और वह संसार के बंधनों से ऊपर उठकर ब्रह्मरूप हो जाता है। जब सभी कर्म ईश्वर को अर्पित किए जाते हैं, तब उनका फल बांधने वाला नहीं रहता – यही भगवद्गीता का कर्मयोग भी है।
ब्रह्मसूत्रों में भी इस बात को बहुत सूक्ष्म रूप से स्पष्ट किया गया है। शंकरभाष्य में एक प्रमुख सूत्र है – “तदधीनत्वात्” (ब्रह्मसूत्र 2.3.40) – अर्थात् जीव का अस्तित्व ब्रह्म पर आधारित है। जीव अपने आप में स्वतंत्र सत्ता नहीं है, इसलिए जब वह अपने को स्वतंत्र मानकर कर्म करता है, तो अहंकार उत्पन्न होता है, जो बंधन का कारण बनता है। किन्तु जब जीव यह जान लेता है कि उसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है, वह केवल ब्रह्म की लीला है, तब उसके समस्त कर्म स्वयं ईश्वर के ही अर्पित हो जाते हैं। इस स्थिति में वह न कर्ता है, न भोक्ता। ब्रह्मसूत्र में अन्यत्र कहा गया है – “नान्यथाश्रुतेः” – अर्थात् आत्मा का स्वभाव ब्रह्म है और श्रुति से यह स्पष्ट होता है कि केवल ज्ञान से ही मोक्ष संभव है, लेकिन यह ज्ञान भी तभी उदित होता है जब हृदय समर्पण और विनय से परिपूर्ण होता है।
दृग-दृश्य-विवेक में अद्वैत ज्ञान की सिद्धि के लिए ‘द्रष्टा’ की पहचान को अत्यंत महत्त्वपूर्ण बताया गया है। जब तक हम अपने को दृश्य मानते हैं – शरीर, मन, बुद्धि आदि – तब तक हम परिवर्तनशील हैं और माया के अधीन हैं। लेकिन जब हम अपने को द्रष्टा – साक्षी – मानते हैं, तब हम जान सकते हैं कि हमारा स्वभाव शुद्ध, नित्य और ब्रह्मरूप है। यह पहचान केवल तर्क या अध्ययन से नहीं होती, बल्कि ईश्वर की कृपा और समर्पण भाव से ही संभव होती है। दृष्टि-दृश्य-विवेक में कहा गया है – “द्रष्टा द्रश्यविलक्षणः” – द्रष्टा दृश्य से भिन्न है। यह भिन्नता तभी जानी जाती है जब साधक अपने को दृश्य (मन, इंद्रिय, शरीर) से अलग करके ईश्वर में लीन कर देता है। यह लीनता – समर्पण – से ही उपजती है। यहाँ तक कि ‘द्रष्टा’ की भी कल्पना छोड़ कर ब्रह्म के साथ एक रूपता को अनुभव करना ही अद्वैत की चरम स्थिति है।
इस प्रकार स्पष्ट होता है कि अद्वैत में आत्मा और ब्रह्म की एकता को अनुभव करने के लिए समर्पण अनिवार्य है। यह समर्पण कोई बाहरी कर्म नहीं, बल्कि आंतरिक परिवर्तन है – जहाँ कर्तापन, भोक्तापन और अहंकार का त्याग करके आत्मा अपनी वास्तविकता को पहचानती है। यह प्रक्रिया शरणागति, विनय, श्रद्धा और सतत अभ्यास से संभव होती है। भगवद्गीता के अनुसार – “अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥” (गीता 9.22) – जो लोग मुझे एकमात्र लक्ष्य मानकर निरंतर चिन्तन करते हैं, उनके योगक्षेम का वहन मैं स्वयं करता हूँ। यह वचन यह सिद्ध करता है कि ईश्वर में पूर्ण समर्पण ही मुक्तिपथ का द्वार खोलता है। अतः अद्वैत का अंतिम फल आत्मा और ब्रह्म की एकता, केवल ज्ञान से नहीं, अपितु श्रद्धा, शरणागति और पूर्ण समर्पण से ही साकार होता है।