वेदान्त: गुरु की महत्व
जब हम वेदांत की बात करते हैं, तो यह कोई साधारण ज्ञान की बात नहीं होती। यह उस परम सत्य की खोज है जो हमारे भीतर ही छिपा हुआ है—वह "अहम् ब्रह्मास्मि" का अनुभव जो शब्दों से परे है। लेकिन सवाल यह उठता है कि जब यह सत्य हमारे भीतर ही है, तो फिर हमें किसी गुरु की ज़रूरत क्यों?
इसका उत्तर बहुत गहरा है—क्योंकि हम अज्ञान से घिरे हुए हैं। हम अपने आपको शरीर, नाम, संबंध, कर्म और विचारों के रूप में पहचानते हैं। यह सब 'मैं' के आसपास बुना एक भ्रम है। वेदांत कहता है कि जब तक यह भ्रम बना रहेगा, तब तक आत्मा का बोध नहीं हो सकता। और इसी भ्रम को दूर करने के लिए गुरु की आवश्यकता होती है। गुरु वह दीपक है जो हमारे भीतर जलता है और अज्ञान के अंधकार को हटाता है।
भारत की आध्यात्मिक परंपरा में 'गुरु–शिष्य' संबंध कोई औपचारिक रिश्ता नहीं होता। यह दिल से दिल, आत्मा से आत्मा का संबंध होता है। नचिकेता जब यमराज के पास आत्मा का ज्ञान पाने जाता है, या जब श्वेतकेतु अपने पिता उद्दालक से 'तत्त्वमसि' का बोध पाता है—तो यह कोई साधारण शिक्षा नहीं होती, यह भीतर से रूपांतरण की प्रक्रिया होती है।
गुरु केवल शास्त्र पढ़ाने वाला नहीं होता, वह अपने शिष्य की चेतना को जाग्रत करता है। वह यह जानता है कि किस शिष्य को किस भाषा में समझाना है, कब मौन रहना है, कब उसे उसकी सीमाओं से बाहर धकेलना है। इसलिए गुरु–शिष्य परंपरा एक जीवंत संवाद है, जहाँ गुरु शिष्य की अवस्था के अनुसार ज्ञान देता है और धीरे-धीरे उसे उस मंज़िल की ओर ले जाता है जिसे शब्दों में नहीं कहा जा सकता।
वेदांत कहता है कि गुरु 'श्रोत्रिय' और 'ब्रह्मनिष्ठ' होना चाहिए। मतलब वह शास्त्रों को जानने वाला हो और स्वयं उस सत्य में स्थित भी हो। अगर केवल शास्त्रों का ज्ञान हो पर आत्मबोध न हो, तो वह गुरु नहीं हो सकता। और अगर अनुभव हो पर शास्त्रज्ञान न हो, तो शिष्य को भ्रम हो सकता है।
सच्चा गुरु ऐसा होता है जो अपने जीवन से ही वेदांत को जीता है। वह कोई बड़ी बातें करके प्रभावित नहीं करता, बल्कि उसका मौन ही बहुत कुछ कह देता है। उसकी उपस्थिति, उसकी दृष्टि और उसका सादापन भी शिष्य को भीतर तक हिला सकता है। वह बताता है कि आत्मा कोई नई चीज़ नहीं है जिसे पाना है, बल्कि वह तो वही है जो हम पहले से हैं—बस पहचानना बाकी है।
अब सवाल ये है कि क्या हर कोई गुरु से ज्ञान प्राप्त कर सकता है? उत्तर है—नहीं। केवल वही शिष्य ज्ञान का अधिकारी होता है जिसमें श्रद्धा और समर्पण होता है। अर्जुन को देखिए, वह तब तक संशय में था जब तक वह श्रीकृष्ण के चरणों में झुककर यह नहीं कहता—"शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्"।
जब तक शिष्य का अहंकार जिंदा रहता है, तब तक गुरु के शब्दों में असर नहीं होता। लेकिन जब वह भीतर से झुकता है, जब वह यह स्वीकार करता है कि "मैं नहीं जानता, कृपया आप मुझे दिखाइए", तब वह पात्र बनता है। गुरु को केवल आदर देने से काम नहीं चलता, उसके निर्देशों का पालन भी करना होता है। कई बार गुरु हमारे सीमित विश्वासों को तोड़ता है, हमारी धारणाओं को चुनौती देता है। अगर श्रद्धा नहीं है, तो हम इन सबको विरोध मानेंगे। लेकिन अगर श्रद्धा है, तो समझेंगे कि यह निर्माण की प्रक्रिया है, टूटने के बाद ही कुछ नया बनता है।
आजकल कई लोग कहते हैं कि "हम शास्त्र पढ़ लेंगे, गुरु की क्या ज़रूरत?" लेकिन वेदांत इस सोच को गलत मानता है। शास्त्र मार्ग दिखाते हैं, लेकिन उस मार्ग पर चलने के लिए, उसमें छिपे संकेतों को समझने के लिए एक अनुभवी गुरु की ज़रूरत होती है। वेदांत के सिद्धांत बहुत सूक्ष्म होते हैं—'अविद्या', 'माया', 'अद्वैत', 'ब्रह्म–सत्य' आदि केवल शब्द नहीं हैं, वे अनुभव की बातें हैं।
गुरु शास्त्रों की भाषा को हमारी भाषा में बदलते हैं। वे बताते हैं कि 'नेति नेति' का क्या मतलब है, या 'साक्षी भाव' को दिनचर्या में कैसे जिया जा सकता है। और सबसे बड़ी बात—जब शिष्य किसी अनुभव में उलझ जाता है, तो गुरु यह तय करता है कि यह 'मन का खेल' है या 'साक्षात्कार का बीज'। शास्त्र तो दिशा देते हैं, लेकिन गुरु वह कश्ती है जो हमें पार ले जाती है।
अंत में, वेदांत हमें सिखाता है कि गुरु केवल व्यक्ति नहीं है—वह ब्रह्म का प्रतिबिंब है। जब हम गुरु को भीतर से स्वीकारते हैं, तो वह हमारे जीवन में चमत्कार की तरह कार्य करता है। उसकी कृपा से अज्ञान का पर्दा हटता है और आत्मा का प्रकाश स्वयं प्रकाशित हो उठता है।
गुरु हमें अपनी ओर आकर्षित नहीं करता, वह हमें खुद की ओर मोड़ता है। वह हमें ईश्वर पर निर्भर नहीं, आत्मा पर केंद्रित बनाता है। वह कहता है—"मैं रास्ता दिखा सकता हूँ, लेकिन चलना तुझे है।" और जब हम इस यात्रा में आगे बढ़ते हैं, तो पता चलता है कि गुरु बाहर नहीं, भीतर बैठा है। वह आत्मा ही तो है जो बार-बार हमें पुकार रही थी। गुरु द्वार है—उसके पार जाना है, उसमें अटकना नहीं।
वेदांत की राह कोई आसान राह नहीं है। यह एक ऐसी यात्रा है जहाँ हर मोड़ पर भ्रम, संशय और उलझनें हैं। लेकिन यदि साथ में एक सच्चा गुरु हो, तो यह यात्रा न केवल आसान हो जाती है, बल्कि आनंदमय भी बन जाती है। गुरु वह आईना है जो हमें दिखाता है कि हम वही हैं जिसकी हमें तलाश थी।