वेदान्त में शास्त्रों का महत्व
शास्त्र वेदांत में प्रमाण माने जाते हैं—ऐसे प्रमाण जो उस सत्य को प्रकट करते हैं जो इंद्रियों या तर्क से परे है। वे कहते हैं, "अहं ब्रह्मास्मि"—मैं ही ब्रह्म हूँ। लेकिन इस गूढ़ सत्य को समझने के लिए शास्त्रों की सही व्याख्या और आंतरिक तैयारी दोनों आवश्यक हैं। वेदांत में शास्त्र ज्ञान का प्रारंभिक दीपक हैं, जो अंधकार से उजाले की ओर ले जाते हैं।
वेदांत के शास्त्रों की भाषा आम किताबों जैसी नहीं होती। वे प्रतीकात्मक होती है, इशारों में बात करती है। उपनिषदों में यह बार-बार कहा गया है कि वह परम सत्य शब्दातीत है, फिर भी वही शब्दों के माध्यम से व्यक्त होता है। यही वेदांत का सौंदर्य है—शब्दों में मौन की ओर इशारा।
जैसे उपनिषद कहते हैं, "नेति नेति"—यह नहीं, वह नहीं। यह वाक्य हमें उन सभी चीज़ों से हटाता है जो ‘मैं’ नहीं हूँ—शरीर, मन, बुद्धि। शास्त्रों की भूमिका यहाँ स्पष्ट होती है: वे सच्चे ‘स्व’ की ओर संकेत करते हैं, जबकि झूठी पहचानों से हटाते हैं। लेकिन इन संकेतों को पकड़ने के लिए केवल पढ़ना पर्याप्त नहीं—उसके पीछे छिपे भाव को समझने की योग्यता चाहिए।
वेदांत में यह माना गया है कि शास्त्र और गुरु दोनों एक साथ मिलकर आत्मज्ञान की यात्रा को संभव बनाते हैं। शास्त्र दिशा दिखाते हैं, लेकिन उस दिशा को समझना और उस पर चलना—यह कार्य गुरु करवाता है। गुरु वह है जो शास्त्रों के गूढ़ अर्थ को व्यावहारिक जीवन में उतारना सिखाता है।
उदाहरण के लिए, “तत्त्वमसि” (तू वही है)—यह उपनिषद का महावाक्य है। इसका सही अर्थ क्या है? क्या यह शरीर के लिए है? मन के लिए? या आत्मा के लिए? इन प्रश्नों का उत्तर गुरु ही देता है, क्योंकि वह स्वयं उस अनुभूति में स्थित होता है। इसलिए वेदांत में यह स्पष्ट कहा गया है—गुरु बिना शास्त्रों का अध्ययन केवल ज्ञान नहीं, भ्रम भी बन सकता है।
शास्त्रों की सबसे बड़ी भूमिका है—अविद्या का नाश। हम अपने आपको शरीर, नाम, कर्म आदि से जोड़ते हैं, जो वास्तव में हमारे ‘स्वरूप’ से अलग हैं। शास्त्र इस अज्ञान को हटाकर हमें हमारी वास्तविकता से जोड़ते हैं—जिसे ब्रह्म कहा गया है। यह कार्य वे उपदेश के माध्यम से नहीं, आंतरिक अंतर्दृष्टि के माध्यम से करते हैं।
वेदांत कहता है कि आत्मा को प्राप्त नहीं किया जाता, बल्कि पहचाना जाता है। शास्त्र यह पहचान करवाते हैं। वेदांत के महान ग्रंथ 'विवेकचूडामणि' में आदिशंकराचार्य कहते हैं—“शास्त्र का उद्देश्य केवल पढ़ना नहीं, बल्कि उससे स्वयं को रूपांतरित करना है।” इसलिए शास्त्र साधना का प्रारंभिक स्तंभ हैं, जिन पर विवेक, वैराग्य और आत्मचिंतन का भवन खड़ा होता है।
वेदांत इस बात को बहुत स्पष्ट रूप से कहता है—शास्त्र अंतिम सत्य नहीं, उस सत्य तक पहुँचने का माध्यम हैं। जब आत्मबोध हो जाता है, तब शास्त्र की आवश्यकता नहीं रहती। लेकिन जब तक यह साक्षात्कार न हुआ हो, तब तक शास्त्र ही हमारे लिए एकमात्र प्रकाश स्रोत हैं। यह ठीक वैसा ही है जैसे कोई नाव पार लगने तक आवश्यक होती है।
शंकराचार्य कहते हैं, "शास्त्र केवल तब तक आवश्यक हैं जब तक अज्ञान बना है।" आत्मज्ञान के बाद, शास्त्रों की भूमिका पूर्ण हो जाती है। तब शास्त्र बाहर के ग्रंथ नहीं रहते, बल्कि भीतर की साक्षी बन जाते हैं। वेदांत में यह सर्वोच्च स्थिति है—जब स्वयं जीवन ही उपनिषद बन जाए।
वेदांत में शास्त्रों की भूमिका केवल बौद्धिक जानकारी तक सीमित नहीं, बल्कि वे जीवन के रूपांतरण का माध्यम हैं। वे हमें अहंकार, भ्रम और सीमाओं से मुक्त कर आत्मा की ओर ले जाते हैं। वेदांत का लक्ष्य है—“स्वयं को जानो”—और शास्त्र इसी दिशा में हमारा पहला कदम हैं।
जो व्यक्ति श्रद्धा, जिज्ञासा और समर्पण से शास्त्रों का अध्ययन करता है, उसके भीतर धीरे-धीरे वह दृष्टि विकसित होती है जो सत्य को देख सकती है। अंततः वेदांत के अनुसार शास्त्र कोई 'बाहरी किताब' नहीं, बल्कि आत्मा के दर्पण हैं—जो हमें वही दिखाते हैं, जो हम सदा से थे: पूर्ण, शुद्ध और ब्रह्मस्वरूप।