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रविवार, 18 मई 2025

"वेदान्त का सार्वभौमिक सत्य"



"वेदान्त का सार्वभौमिक सत्य"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

यह संसार विविध धर्मों, संस्कृतियों और परंपराओं से भरा हुआ है, परंतु इन सबके पार कोई ऐसा सत्य है जो सार्वभौमिक है, जो न तो समय के अधीन है, न ही स्थान या जाति के बंधन में बंधा हुआ है। वेदांत इसी सार्वभौमिक सत्य का उद्घाटन करता है। यह किसी एक धर्म, सम्प्रदाय या संस्कृति तक सीमित नहीं है, बल्कि समस्त मानवता के लिए है। उपनिषदों में वर्णित 'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' (तैत्तिरीयोपनिषद् 2.1.1) — "ब्रह्म सत्य है, ज्ञानस्वरूप है, और अनन्त है", यह स्पष्ट करता है कि वेदांत का लक्ष्य उस ब्रह्म की अनुभूति कराना है, जो हर जीव के भीतर निहित है। यह अनुभूति न तो किसी मूर्ति की पूजा तक सीमित है और न ही किसी संप्रदाय विशेष की मान्यताओं पर आधारित है, अपितु यह एक आत्मानुभूति है जो समस्त द्वैत से परे है। 'विवेकचूडामणि' में कहा गया है — "मुक्ति: स्वस्वरूपानुभवः" अर्थात मुक्ति अपने स्वरूप की अनुभूति है। यह अनुभूति न हिन्दू है, न मुसलमान, न ईसाई – यह केवल चैतन्य की पहचान है।

अधिकांश धर्म बाह्य आचारों और कर्मकांडों पर आधारित होते हैं, जबकि वेदांत अंतःकरण की शुद्धि और आत्मदर्शन पर बल देता है। ‘गीता’ में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं – "विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि। शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः॥" (गीता 5.18), अर्थात ज्ञानीजन ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता और चाण्डाल में समान दृष्टि रखते हैं। यह समदर्शिता वेदांत की आत्मा है। आत्मा न जन्म लेती है, न मरती है, न विभाजित होती है – यह ज्ञान किसी जाति, धर्म या राष्ट्रीयता से सीमित नहीं होता। 'आत्मबोध' ग्रंथ में कहा गया है – "आत्मा तु साक्षादपरोक्षः", अर्थात आत्मा प्रत्यक्ष अनुभूत होने योग्य है। यही आत्मा हर व्यक्ति में एक ही रूप में विद्यमान है, और जब इस आत्मा का साक्षात्कार होता है, तो व्यक्ति समस्त भेदों को पार कर जाता है। वेदांत का यही उद्देश्य है – आत्मा की एकता का साक्षात्कार।

ब्रह्मसूत्र के प्रारंभ में ही कहा गया है – "अथातो ब्रह्मजिज्ञासा", अर्थात अब ब्रह्म के ज्ञान की जिज्ञासा की जाए। यह ब्रह्म किसी एक धर्म के ईश्वर का नाम नहीं, बल्कि समस्त अस्तित्व का आधार है। यह जगत ब्रह्म का ही प्रक्षेप है, जिसे माया के माध्यम से देखा जाता है। 'द्रिग्दृष्यविवेक' ग्रंथ में स्पष्ट किया गया है – "दृश्यं ज्ञंत्वा दृग् एव न त्वं", अर्थात जो कुछ भी देखा जाता है वह दृश्य है, और देखने वाला 'तुम' नहीं हो – तुम तो देखने की शक्ति हो, साक्षी हो। यह 'द्रष्टा' हर एक में एक समान है। चाहे वह किसी भी देश, संस्कृति या भाषा का क्यों न हो। वेदांत हमें यह सिखाता है कि मनुष्य का सत्य स्वरूप शरीर या मन नहीं, बल्कि साक्षी चैतन्य है, जो सदा अचंचल और निरपेक्ष है। यह चैतन्य ही वेदांत का लक्ष्य है – और यही समस्त धर्मों की मूल आत्मा है, भले ही उनके मार्ग भिन्न हों।

वेदांत किसी पूजा-पद्धति या धार्मिक चिन्हों की पूजा की बात नहीं करता, बल्कि वह उस एकमेव ब्रह्म की बात करता है जो निराकार, निर्विकार और सर्वव्यापक है। उपनिषदों में कहा गया है – "नेति नेति" (बृहदारण्यकोपनिषद् 2.3.6), अर्थात यह भी नहीं, वह भी नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि ब्रह्म किसी रूप, रंग या संज्ञा में बाँधा नहीं जा सकता। वह समस्त नाम-रूपों से परे है, और फिर भी सबमें विद्यमान है। वेदांत धर्म के बाह्य आवरणों को त्यागकर आत्मा के परम सत्य की ओर ले जाता है। यही कारण है कि विश्वभर के अनेक विचारकों ने वेदांत को मानवता की धरोहर माना है, न कि किसी विशिष्ट समुदाय की सम्पत्ति। यह ज्ञान सर्वसमावेशी है, जैसे सूर्य केवल भारत में नहीं, बल्कि पूरे विश्व में एक समान प्रकाश देता है – उसी प्रकार ब्रह्मज्ञान भी प्रत्येक मानव के लिए उपलब्ध है।

‘विवेकचूडामणि’ में स्पष्ट कहा गया है – "न चास्ति मुक्तेः विकल्पः", अर्थात मुक्ति किसी विशेष स्थिति या योग्यता से सीमित नहीं है – यह सबके लिए है, चाहे वह किसी भी परिस्थिति में क्यों न हो। बस आवश्यक है – विवेक, वैराग्य, शमादि षट्सम्पत्ति और मुमुक्षुत्व। जब ये गुण उत्पन्न होते हैं, तब वेदांत का मार्ग स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है। यह मार्ग किसी मठ या मंदिर का मोहताज नहीं है – यह तो हृदय की गहराई में उतरने की साधना है। आत्मा के साक्षात्कार से ही सच्चा विश्व-बंधुत्व संभव होता है, जहाँ कोई दूसरा नहीं होता – केवल एक ही सत्ता होती है। यह दृष्टि सारे द्वैत, भेदभाव, और धार्मिक संकीर्णताओं को समाप्त कर देती है। यही वेदांत की विशेषता है – वह केवल एक ज्ञान पद्धति नहीं, बल्कि एक चेतना की क्रांति है।

अतः निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि वेदांत न केवल एक धार्मिक दर्शन है, अपितु वह मानवता की सार्वभौमिक चेतना को जागृत करने वाला पथ है। वह न किसी देवता की पूजा तक सीमित है, न किसी विशेष भाषा या ग्रंथ तक। वह तो उस परम सत्य की खोज है जो सबमें एकरूप से विद्यमान है। यह दर्शन मानवता को आत्मा की एकता, करुणा, समदृष्टि और ब्रह्मबोध की ओर ले जाता है। जो वेदांत को समझ लेता है, वह केवल हिन्दू नहीं रह जाता – वह एक विश्वात्मा बन जाता है। यही वेदांत की सार्वभौमिकता है – वह धर्मों के पार जाकर सत्य की ओर इशारा करता है। उपनिषदों के वचन – "सर्वं खल्विदं ब्रह्म" (छांदोग्य उपनिषद् 3.14.1) – यह सम्पूर्ण जगत ही ब्रह्म है – वेदांत के इसी सार्वभौमिक दृष्टिकोण को उद्घाटित करते हैं। वेदांत धर्म नहीं – दर्शन है, और यह दर्शन समस्त मानवता के लिए एक अनुपम वरदान है।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

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