"वेदान्त से सम्बन्धों का रूपांतरण"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
संबंधों का स्वरूप संसार में अत्यंत जटिल एवं परिवर्तनशील होता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में विभिन्न संबंधों का अनुभव करता है—माता-पिता, पुत्र-पुत्री, पति-पत्नी, मित्र, शत्रु आदि। परंतु वेदांत इन संबंधों की अस्थायी प्रकृति की ओर संकेत करता है और व्यक्ति को आत्मा की दृष्टि से जीवन को देखने का उपदेश देता है। उपनिषदों में कहा गया है—"यः पश्यति स पश्यति" अर्थात जो सत्य को देखता है, वही वास्तव में देखता है (छांदोग्य उपनिषद 6.14.2)। यह सत्य आत्मा है, जो सर्वव्यापी, अद्वितीय और अपरिवर्तनीय है। जब हम संबंधों को आत्मा की दृष्टि से देखते हैं, तब उनमें द्वंद्व नहीं रहता। गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं—"समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्। विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति॥" (भगवद्गीता 13.27) अर्थात जो व्यक्ति समस्त प्राणियों में स्थित अविनाशी परमेश्वर को देखता है, वही यथार्थ में देखता है। यह समदृष्टि ही संबंधों को परिवर्तित करने की कुंजी है।
विवेकचूडामणि में आद्य शंकराचार्य कहते हैं—"बन्धमोक्षौ न सन्तस्तु बुद्ध्याद्यात्मनि कल्पितौ। गुणदोषक्रियाद्यास्तु धर्मा नास्त्यात्मनः क्वचित्॥" (श्लोक 170) अर्थात बंधन और मोक्ष बुद्धि आदि में कल्पित हैं, आत्मा का इससे कोई संबंध नहीं। आत्मा तो सदा मुक्त है। जब संबंधों को अहंकार, अपेक्षा, स्वार्थ और आसक्ति के चश्मे से देखा जाता है, तब वे बंधन का कारण बनते हैं। परंतु जब वही संबंध आत्मज्ञान के प्रकाश में देखे जाते हैं, तब वे साधना का माध्यम बन जाते हैं। दृष्टि-दृश्य विवेक में स्पष्ट किया गया है—"द्रष्टा दृशिमात्रः शुद्धो निपुणो दृग्गोचरं दृशम्।" अर्थात देखने वाला (द्रष्टा) मात्र शुद्ध चैतन्य है, जो दृश्य को देखता है लेकिन उससे प्रभावित नहीं होता। यदि व्यक्ति इसी ज्ञान से अपने संबंधों को देखे, तो उसमें प्रेम, करुणा और समता उत्पन्न होती है।
आत्मबोध ग्रंथ में कहा गया है—"द्वैतं यदा न विद्येत तर्ह्येव ब्रह्मदर्शनम्।" अर्थात जब द्वैत नहीं रहता, तभी ब्रह्म का साक्षात्कार होता है। अधिकतर संबंधों में क्लेश, विवाद और मानसिक अशांति का कारण यही द्वैतभाव है—‘मैं’ और ‘तू’, ‘मेरा’ और ‘तेरा’। यह द्वैत तभी मिटता है जब व्यक्ति ‘स्व’ और ‘पर’ में कोई भेद नहीं मानता। ब्रह्म सूत्र में कहा गया है—"तत् तु समन्वयात्॥" (ब्रह्म सूत्र 1.1.4) अर्थात वह ब्रह्म ही समस्त शास्त्रों का सार है। यही ब्रह्म सबका आत्मस्वरूप है। यदि प्रत्येक संबंध को इस दृष्टि से देखा जाए कि दूसरा भी वही ब्रह्म है, तो अहं और ईर्ष्या का स्थान आत्मीयता और समर्पण ले लेता है।
भगवद्गीता के छठे अध्याय में श्रीकृष्ण स्पष्ट रूप से कहते हैं—"आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन। सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः॥" (6.32) अर्थात जो योगी हर एक प्राणी में अपने समान आत्मा को देखता है, और उनके सुख-दुख में सहभागी होता है, वही श्रेष्ठ योगी है। जब यह आत्मौपम्यता दृष्टिकोण बन जाती है, तब संबंधों में स्वार्थ, क्रोध, मतभेद और वैमनस्य स्वतः ही दूर हो जाते हैं। तब पति-पत्नी का संबंध भी एक आत्मिक यात्रा बन जाता है, माता-पिता का वात्सल्य सेवा में बदलता है, और मित्रता शुद्ध सहयोग में परिणत हो जाती है। यह रूपांतरण केवल व्यवहारिक नहीं, अपितु आध्यात्मिक होता है। शंकराचार्य कहते हैं—"यावज्जीवेत् परं ब्रह्म मनसा भावयेत्सदा।" अर्थात जब तक जीवन है, तब तक परम ब्रह्म का ध्यान करता रहे।
विवेकचूडामणि में शंकराचार्य एक और स्थान पर कहते हैं—"सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि। ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः॥" (श्लोक 183) अर्थात जो योगयुक्त आत्मा है, वह सभी प्राणियों में आत्मा को और आत्मा में सभी प्राणियों को देखता है। यही समदर्शिता संबंधों को दिव्यता से भर देती है। जब हम संबंधों को इस समत्व से जीते हैं, तब किसी से अपेक्षा नहीं रहती, आलोचना नहीं होती, और क्षमा सहज हो जाती है। संबंध फिर संघर्ष का नहीं, सेवा का माध्यम बनते हैं। दृष्टि-दृश्य विवेक की भाँति जब हम ‘द्रष्टा’ के रूप में टिकते हैं, और सभी संबंधों को ‘दृश्य’ रूप में समझते हैं, तब हम उनमें उलझते नहीं, बल्कि उन्हें ब्रह्म की लीला समझकर सहजता से निभाते हैं।
अंततः संबंधों का शुद्धिकरण और रूपांतरण वेदांत की यही सिखावन है—द्वैत का अंत और अद्वैत की अनुभूति। जब सभी संबंधों को आत्मा के धरातल पर देखा जाता है, तब वे मनुष्य को बंधन में नहीं डालते, बल्कि मुक्ति की ओर ले जाते हैं। उपनिषद कहते हैं—"सर्वं खल्विदं ब्रह्म" (छांदोग्य उपनिषद 3.14.1) अर्थात यह सब कुछ ही ब्रह्म है। जब यह दृष्टि स्थिर होती है, तब संबंधों में संघर्ष नहीं, केवल प्रेम, क्षमा, सहिष्णुता और करुणा रह जाती है। यही वेदांत की परिपक्वता है, यही संबंधों का रूपांतरण है।