"जग में रहते हुए भी अलिप्त जीवन: ज्ञानियों की स्थिति पर एक विवेचन"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
ज्ञानी पुरुष की जीवन दशा सामान्य व्यक्ति की दृष्टि में अत्यंत रहस्यमयी प्रतीत होती है, क्योंकि वह संसार में सक्रिय रहते हुए भी संसार से रहित होता है। वह चलते-फिरते, बोलते-सुनते, खाते-पीते और कार्य करते हुए भी किसी भी कर्म में लिप्त नहीं होता। उपनिषदों में ऐसे पुरुष को अवध्य, अशरीर, असंग और आत्मरूप कहा गया है। आत्मा को जान लेने के बाद ज्ञानी यह भलीभांति समझ लेता है कि वह शरीर, मन, बुद्धि आदि से भिन्न है। यह बोध उसे संसार में रहते हुए भी निर्लिप्त कर देता है। वह यह अनुभव करता है कि सब कुछ केवल साक्षीभाव से घट रहा है, और उसके असली स्वरूप पर किसी भी कर्म का लेशमात्र प्रभाव नहीं पड़ता।
विवेकचूड़ामणि में यह स्पष्ट किया गया है कि जो व्यक्ति यह जानता है कि 'मैं न शरीर हूँ, न इंद्रियाँ, न मन, न बुद्धि, अपितु केवल शुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मा हूँ', वही वास्तव में ज्ञानी है। ऐसा व्यक्ति जगत की समस्त गतिविधियों में मात्र दर्शक के रूप में उपस्थित रहता है। उसका मन संसार में व्यवहार करता है, किंतु आत्मा उसमें लिप्त नहीं होती। जैसे आकाश घड़ों में बंद होता हुआ भी घड़ों से संबंधित नहीं होता, वैसे ही ज्ञानी शरीर में रहते हुए भी शरीर से, उसके कर्तृत्व और भोक्तृत्व से निर्लिप्त रहता है। यही कारण है कि वह समस्त सांसारिक द्वंद्वों – सुख-दुख, लाभ-हानि, मान-अपमान – से परे रहता है।
आत्मबोध ग्रंथ में कहा गया है कि आत्मज्ञान प्राप्त होने पर अज्ञान से उत्पन्न समस्त भ्रांतियाँ नष्ट हो जाती हैं। ज्ञानी को यह भलीभांति विदित हो जाता है कि यह संसार केवल माया का प्रपंच है, और आत्मा इनसे परे, नित्य, शुद्ध और पूर्ण है। यह अनुभव स्थायी हो जाने पर ज्ञानी किसी वस्तु या परिस्थिति में आसक्ति नहीं रखता। वह न कर्म से डरता है, न फल की इच्छा करता है, क्योंकि उसे ज्ञात है कि कर्म शरीर-मन के स्तर पर होते हैं, और आत्मा को उनसे कोई संबंध नहीं। इसी कारण वह कर्म करते हुए भी अकर्म रहता है, जैसे गीता में बताया गया है।
भगवद्गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि ज्ञानी व्यक्ति सब ओर समान भाव रखता है, क्योंकि वह सबको आत्मस्वरूप में देखता है। उसका जीवन अनासक्त कर्म का उदाहरण होता है। वह कर्मों को केवल अपने धर्म, समाज और शरीर की अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु करता है, किंतु उन पर अपना अधिकार नहीं जमाता। वह फल की अपेक्षा नहीं करता, जिससे न तो सफलता में गर्व करता है, न असफलता में शोक। उसका जीवन एक सतत यज्ञ की भांति होता है – प्रत्येक कार्य समर्पण का एक भाव लेकर किया जाता है, जो उसे संसार से जोड़ते हुए भी उससे अलग कर देता है।
ब्रह्म सूत्रों में वर्णित है कि आत्मज्ञान प्राप्त होने के बाद बंधन की कोई संभावना नहीं रहती, क्योंकि बंधन केवल अज्ञान से उत्पन्न होता है। ज्ञानी पुरुष जानता है कि जीव और ब्रह्म एक ही हैं, और यह जानना ही मोक्ष है। जब यह अनुभव जीवित रहते हुए ही दृढ़ हो जाता है, तब वह इस देह को केवल एक साधन मानकर व्यवहार करता है। वह संसार में सभी कर्तव्यों को निभाता है, किंतु स्वयं को कर्ता नहीं मानता। उसका जीवन एक मुक्त पुरुष का जीवन होता है, जो न समाज से भागता है, न उसमें फँसता है – वह सहज भाव से सबको सहयोग करता हुआ, भीतर से सदा मुक्त बना रहता है।
द्रिग्दृश्यविवेक में स्पष्ट किया गया है कि जो देखता है वह आत्मा है, और जो देखा जाता है वह दृश्य है – और दृश्य सदा बदलता रहता है, पर द्रष्टा अपरिवर्तनीय रहता है। यह विवेक जिसे दृढ़ता से स्थापित हो जाता है, वह जगत के नाटक को खेल की भांति देखता है। उसके लिए सब कुछ दृश्य मात्र है – शरीर, समाज, रिश्ते, घटनाएँ – और वह स्वयं द्रष्टा रूप आत्मा में स्थित रहता है। यही स्थिति उसे संसार में रहते हुए भी मुक्त और अलिप्त बनाती है। वह किसी घटना या व्यक्ति से प्रभावित नहीं होता, क्योंकि उसका चित्त किसी भी वस्तु को स्थायी नहीं मानता। उसे ज्ञात होता है कि सब कुछ परिवर्तनशील है, और उसका वास्तविक स्वरूप उस परिवर्तन से परे है।
इस प्रकार ज्ञानी पुरुष का जीवन एक गहन आंतरिक स्वतंत्रता का प्रतीक बन जाता है। वह न किसी बात से विचलित होता है, न किसी लक्ष्य की चिंता करता है। उसके लिए जीवन एक साक्षीभाव से देखने की प्रक्रिया है। वह समाज में रहते हुए समाज को जागृत करने का कार्य करता है, किन्तु भीतर से सदा शान्त और समाधिस्थ रहता है। उसका आचरण प्रेरणा देता है, उसकी वाणी शांति फैलाती है, और उसका मौन भी शिक्षा देता है। ऐसे ज्ञानी पुरुष ही जगत में रहते हुए भी जगत से परे होते हैं – वे स्थिर चित्त, निस्पृह और पूर्ण आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठित होते हैं।