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बुधवार, 8 अक्टूबर 2025

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 144वां श्लोक"



"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 144वां श्लोक"

"अध्यास"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

भानुप्रभासञ्जनिताभ्रपङ्क्ति-र्भानुं तिरोधाय विजृम्भते यथा।

आत्मोदिताह‌कृतिरात्मतत्त्वं तथा तिरोधाय विजृम्भते स्वयम् ॥ १४४॥

जिस प्रकार सूर्य के तेज से उत्पन्न हुई मेघमाला सूर्य ही को ढँककर स्वयं फैल जाती है, उसी प्रकार आत्मा से प्रकट हुआ अहंकार आत्मा को ही आच्छादित करके स्वयं स्थित हो जाता है।

इस श्लोक में आदि शंकराचार्य आत्मा और अहंकार के संबंध को अत्यंत सरल और प्रभावशाली उपमा के माध्यम से स्पष्ट करते हैं। उपमा दी गई है सूर्य और बादलों की। जिस प्रकार सूर्य के तेज से ही बादल उत्पन्न होते हैं, परंतु उत्पन्न होकर वही बादल सूर्य को ढँक लेते हैं और आकाश में विस्तार पा जाते हैं, उसी प्रकार आत्मा से ही प्रकट हुआ अहंकार आत्मा को ढँक देता है और ऐसा प्रतीत कराता है मानो आत्मा स्वयं अनुपस्थित हो। वास्तव में न तो सूर्य कभी बादलों से आच्छादित होता है और न आत्मा अहंकार से ढँक जाता है। सूर्य अपनी जगह पर वैसे ही स्थित रहता है, परंतु हमारे दृष्टि से वह ओझल हो जाता है। इसी प्रकार आत्मा सदा प्रकाशित, शुद्ध और नित्य है, परंतु अहंकार की आच्छादक शक्ति के कारण जीव उसे अनुभव नहीं कर पाता।

आत्मा की स्वाभाविक ज्योति ही चैतन्य का आधार है, उसी से मन, बुद्धि और अहंकार सबको चेतना प्राप्त होती है। परंतु जब यह चैतन्य अहंकार के आवरण से ढँक जाता है, तब जीव स्वयं को केवल ‘मैं’ और ‘मेरा’ के सीमित भाव में बाँध लेता है। यही बंधन का कारण है। जैसे मेघ अपने अस्तित्व के लिए सूर्य के तेज पर ही आश्रित होते हैं, वैसे ही अहंकार आत्मा के चैतन्य पर निर्भर है। यदि आत्मा का प्रकाश न हो, तो न अहंकार का अनुभव संभव है और न किसी प्रकार की जीवभावना का। फिर भी वही अहंकार अपने उद्गम, आत्मा को ढँक लेता है और जीव को मायिक संसार में उलझा देता है।

यह स्थिति अज्ञान की ही उपज है। अज्ञान से उत्पन्न अहंकार यह भ्रांति पैदा करता है कि ‘मैं शरीर हूँ’, ‘मैं मन हूँ’, ‘मैं कर्ता और भोक्ता हूँ’। इस भ्रांति में जीव अपने वास्तविक स्वरूप को विस्मृत कर बैठता है। जैसे बादलों के हटते ही सूर्य पुनः अपने तेज के साथ प्रकट हो जाता है, वैसे ही जब ज्ञान का प्रकाश प्रकट होता है और अहंकार का आवरण हट जाता है, तब आत्मा का स्वरूप स्वतः ही प्रकाशित हो जाता है। वास्तव में उसे बाहर से प्रकट करने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि वह सदा स्वयंज्योति है। केवल अहंकार का आच्छादन हटाना ही आवश्यक है।

शंकराचार्य का संकेत यह है कि साधक को यह समझना चाहिए कि अहंकार का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। यह आत्मा के चैतन्य से ही उत्पन्न है और उसी पर आधारित है। जैसे अंधकार का अस्तित्व केवल प्रकाश की अनुपस्थिति में ही प्रतीत होता है, वैसे ही अहंकार का अस्तित्व केवल आत्मा के विस्मरण से ही संभव है। जब साधक विवेक और ध्यान के माध्यम से आत्मा का स्मरण करता है, तब अहंकार की शक्ति क्षीण होने लगती है।

अहंकार को हटाने का साधन आत्मानुभूति है। शास्त्र श्रवण, मनन और निदिध्यासन के द्वारा जब साधक अपने भीतर के साक्षीभाव को पहचानता है, तब उसे स्पष्ट होता है कि आत्मा कभी भी ढँक नहीं सकती। ढँका केवल हमारा ज्ञान है, हमारी दृष्टि है। आत्मा तो सदैव प्रकाशित और अखंड है।

अतः इस श्लोक का सार यही है कि अहंकार, जो आत्मा से ही उत्पन्न है, वही आत्मा को ढँक देता है और जीव को उसकी वास्तविकता से वंचित कर देता है। परंतु जब यह समझ आ जाती है कि अहंकार का कोई स्वतंत्र बल नहीं, वह केवल अज्ञान का परिणाम है, तब साधक सहज ही आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है। जैसे सूर्य को ढँकने वाले बादल अस्थायी हैं और अंततः विलीन हो जाते हैं, वैसे ही अहंकार भी अस्थायी है। आत्मा का तेज शाश्वत और अद्वितीय है, जिसे पहचानने मात्र से मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।

!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

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