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मंगलवार, 7 अक्टूबर 2025

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 143वां श्लोक"



"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 143वां श्लोक"

"अध्यास"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

महामोहग्राहग्रसनगलितात्मावगमनो धियो नानावस्थाः स्वयमभिनयंस्तद्गुणतया । 

अपारे संसारे विषयविषपूरे जलनिधौ निमज्योन्मज्यायं भ्रमति कुमतिः कुत्सितगतिः ॥ १४३ ॥

अर्थ:-तब यह नाना प्रकार की नीच गतियों वाला कुमति जीव विषयरूपी विष से भरे हुए इस अपार संसार-समुद्र में डूबता उछलता महामोह रूप ग्राह के पंजे में पड़ कर आत्मज्ञान के नष्ट हो जानेसे बुद्धि के गुणों का अभिमानी होकर उसकी नाना अवस्थाओं का अभिनय (नाट्य) करता हुआ भ्रमता रहता है।

यह श्लोक जीव की उस दयनीय स्थिति का चित्रण करता है, जो आत्मज्ञान से विमुख होकर महामोह रूपी ग्राह के ग्रास में पड़ा हुआ है। यहाँ शंकराचार्य यह समझाना चाहते हैं कि जब मनुष्य विवेक खो बैठता है, तब उसकी बुद्धि पर अविद्या का ऐसा गहरा आवरण छा जाता है कि उसे अपने वास्तविक स्वरूप, अर्थात आत्मा का ज्ञान नहीं हो पाता। वह अपने को देह, इन्द्रियाँ और मन तक सीमित समझकर उन्हीं की अवस्थाओं और गुणों का अभिनय करने लगता है। जैसे कोई अभिनेता मंच पर विभिन्न पात्रों का अभिनय करता है और दर्शक उसे उसी रूप में देखने लगते हैं, वैसे ही अज्ञानवश मनुष्य अपने आत्मस्वरूप को भुलाकर देहधर्मों को अपना धर्म मान बैठता है और उनकी नाना अवस्थाओं को वास्तविक मानकर उसी के अनुरूप व्यवहार करता है। यही उसकी कुमति कहलाती है।

संसार को यहाँ विषय-विष से भरे हुए एक अपार जलनिधि के रूप में दिखाया गया है। जैसे समुद्र की लहरें किसी नाविक को बार-बार डुबोती और ऊपर उठाती हैं, वैसे ही विषयासक्ति मनुष्य को सुख-दुःख, लाभ-हानि, मान-अपमान की लहरों में डुबोकर ऊपर-नीचे करती रहती है। विषयों में लिप्त मनुष्य कभी थोड़ी देर सुख पाता है तो तुरंत दुःख की लहर उसे नीचे खींच लेती है। इस प्रकार वह न तो स्थिर सुख प्राप्त कर पाता है और न ही इस चक्र से मुक्त हो पाता है। वस्तुतः विषयों का आनंद विष के समान है – क्षणिक आकर्षण के बाद केवल पीड़ा और बंधन ही देते हैं। परंतु मोह में फँसा जीव इसे समझ नहीं पाता और बार-बार उन्हीं विषयों की ओर आकर्षित होता है।

शंकराचार्य इस स्थिति की तुलना महामोह रूपी ग्राह से करते हैं। जैसे नदी या समुद्र में यदि कोई व्यक्ति ग्राह (मगरमच्छ) के पंजे में फँस जाए तो उसका छूटना अत्यंत कठिन होता है, वैसे ही जब जीव महामोह के पंजे में आ जाता है तो उसे आत्मस्वरूप का स्मरण ही नहीं रहता। वह निरंतर देहाभिमान और विषयभोग की दौड़ में फँसकर जीवन को व्यर्थ कर देता है। यही मोह उसे जन्म-मरण के चक्र में बाँधकर रखता है।

यहाँ यह भी कहा गया है कि जीव नाना प्रकार की नीच गतियों को प्राप्त होता है। अर्थात मोह और विषयासक्ति से प्रेरित होकर वह कभी क्रोध, कभी लोभ, कभी अहंकार, कभी ईर्ष्या जैसी नीच अवस्थाओं में डूबता रहता है। यही उसकी "कुत्सित गति" कही गई है। जैसे कोई नट मंच पर भिन्न-भिन्न भेष धारण करके अभिनय करता है, वैसे ही अज्ञानी जीव बुद्धि की नाना अवस्थाओं का अभिनय करते हुए यह मान बैठता है कि वही उसका वास्तविक स्वरूप है।

वस्तुतः यह श्लोक हमें सावधान करता है कि मोह और विषयासक्ति का परिणाम केवल अधःपतन है। जब तक जीव अपनी दृष्टि को आत्मा की ओर नहीं मोड़ेगा और विवेक के प्रकाश से बुद्धि को आलोकित नहीं करेगा, तब तक वह इसी महासागर में डूबता-उतराता रहेगा। आत्मज्ञान के अभाव में जीवन केवल अभिनय मात्र बनकर रह जाता है, जिसमें वास्तविकता कुछ नहीं होती। इसलिए साधक को चाहिए कि वह विषयों के इस विष-समुद्र से विमुख होकर गुरु, शास्त्र और साधना के सहारे आत्मज्ञान की ओर बढ़े, तभी वह इस महामोह ग्राह से मुक्त होकर परम शांति और मुक्ति को प्राप्त कर सकता है।

इस प्रकार यह श्लोक संसार में जीव की दयनीय स्थिति और उसके कारणों का गहरा विश्लेषण करता है तथा हमें यह चेतावनी देता है कि आत्मस्वरूप का ज्ञान ही इस भ्रम और मोह से मुक्ति का एकमात्र उपाय है।

!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

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