Total Blog Views

Translate

गुरुवार, 9 अक्टूबर 2025

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 145वां श्लोक"



"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 145वां श्लोक"

"आवरणशक्ति और विक्षेपशक्ति"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

कवलितदिननाथे दुर्दिने सान्द्रमेधै-मूढबुद्धिं व्र्व्यथयति हिमझञ्झावायुरुग्रो यथैतान् । 

अविरततमसात्मन्यावृते क्षपयति बहुदुःखैस्तीव्रविक्षेपशक्तिः ॥ १४५ ॥

अर्थ:-जिस प्रकार किसी दुर्दिन में (जिस दिन आँधी, मेघ आदि का विशेष उत्पात हो) सघन मेघों के द्वारा सूर्यदेव के आच्छादित होनेपर अति भयंकर और ठंडी-ठंडी आँधी सबको खिन्न कर देती है, उसी प्रकार बुद्धि के निरन्तर तमोगुण से आवृत होने पर मूढ़ पुरुष को विक्षेपशक्ति नाना प्रकार के दुःखों से सन्तप्त करती है।

इस श्लोक में आदि शंकराचार्य ने जीव की अज्ञानावस्था और उसके कारण होने वाले दुःखों का अत्यंत प्रभावशाली उपमान द्वारा वर्णन किया है। वे कहते हैं — जैसे किसी दुर्दिन में, जब सूर्य सघन बादलों से पूरी तरह ढक जाता है, और आकाश में अंधकार छा जाता है, तब ठंडी और तीव्र आँधी (हिमझंझा) सबको कंपा देती है, वैसे ही जब मनुष्य की बुद्धि अज्ञानरूपी घने तमस से ढक जाती है, तब उस पर रजोगुण की विक्षेपशक्ति प्रबल होकर नाना प्रकार के दुःखों की वर्षा करती है और उसे शांति से वंचित कर देती है। यहाँ “कवलित दिननाथ” का अर्थ है — सूर्य का आच्छादित होना। सूर्य ज्ञान का प्रतीक है, और बादल अविद्या के आवरण का। जब ज्ञानरूपी सूर्य अज्ञान के बादलों से ढक जाता है, तब भीतर और बाहर दोनों ही ओर अंधकार छा जाता है। उसी समय “हिमझंझा” रूपी विक्षेपशक्ति — जो रजोगुण से उत्पन्न होती है — मूढ़ बुद्धि को अस्थिर कर देती है।

शंकराचार्य यह समझाना चाहते हैं कि जब मनुष्य का विवेक नष्ट हो जाता है और वह आत्मा से अपने को भिन्न समझने लगता है, तब तमोगुण उसकी बुद्धि को ढक लेता है। यही “आवरणशक्ति” है। और जब यह आवरण दृढ़ हो जाता है, तब उससे उत्पन्न विक्षेपशक्ति उसे बाह्य संसार की ओर धकेलती है — इच्छाओं, क्रोध, लोभ, मोह और असंख्य वासनाओं के तूफ़ान में फँसाकर। जैसे घोर अंधकार में मनुष्य दिशा भूल जाता है, वैसे ही अज्ञान से ढकी हुई बुद्धि वाला व्यक्ति अपने सच्चे स्वरूप को भूलकर नाना प्रकार के दुःखों में डूबता चला जाता है।

यहाँ “तीव्रविक्षेपशक्ति” का अर्थ है — रजोगुण की तीव्र क्रिया, जो मन को निरंतर चंचल बनाती है। यह शक्ति व्यक्ति को शांत नहीं रहने देती, उसे संसारिक कर्मों, इच्छाओं और दुखों में उलझाती रहती है। तमोगुण बुद्धि को ढकता है और रजोगुण मन को व्याकुल करता है; इन दोनों के कारण आत्मबोध का प्रकाश मिट जाता है। जैसे सूर्य के ढक जाने पर ठंडी आँधी चलने लगती है, जिससे सम्पूर्ण वातावरण असहज और पीड़ादायक बन जाता है, वैसे ही जब आत्मचैतन्य का प्रकाश आवृत्त हो जाता है, तब मनुष्य का जीवन दुःख, अस्थिरता और भ्रम से भर जाता है।

यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि जब तक मन में अज्ञान का आवरण बना रहता है, तब तक विक्षेपशक्ति हमें शांति से दूर रखती है। हमारे भीतर का वास्तविक आनंद, जो आत्मस्वरूप से ही स्वाभाविक रूप से विद्यमान है, वह अज्ञान के कारण छिप जाता है। इसलिए साधक का कर्तव्य है कि वह शुद्ध विवेक और वैराग्य के अभ्यास से तमस और रजस को क्षीण करे। जब बुद्धि निर्मल होती है, तब ज्ञान का सूर्य पुनः प्रकट होता है और सभी दुःख मिट जाते हैं। अंततः यह उपमान यह भी दर्शाता है कि अज्ञान कोई स्थायी वस्तु नहीं है — जैसे बादल स्थायी नहीं रहते, वैसे ही अज्ञान भी विवेक के उदय से समाप्त हो जाता है। परंतु जब तक यह रहता है, तब तक विक्षेपरूपी आँधी जीवन को बेचैन और दुःखमय बनाए रखती है। इस प्रकार यह श्लोक हमें भीतर के अंधकार को पहचानने और आत्मज्ञान की दिशा में प्रयत्नशील रहने की प्रेरणा देता है।

!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

Kindly follow, share, and support to stay deeply connected with the timeless wisdom of Vedanta. Your engagement helps spread this profound knowledge to more hearts and minds.

"For more information, please click the link below."
www.sadhanapath.in