"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 146वां श्लोक"
"आवरणशक्ति और विक्षेपशक्ति"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
एताभ्यामेव शक्तिभ्यां बन्धः पुंसः समागतः ।
याभ्यां विमोहितो देहं मत्वात्मानं भ्रमत्ययम् ॥ १४६ ॥
अर्थ:-इन दोनों (आवरण और विक्षेप) शक्तियों से ही पुरुष को बन्धन की प्राप्ति हुई है और इन्हीं से मोहित होकर यह देह को आत्मा मानकर संसार-चक्र में भ्रमता रहता है।
श्री शंकराचार्य द्वारा रचित विवेकचूडामणि के इस श्लोक में आत्मा के बन्धन का रहस्य अत्यंत गूढ़ और सूक्ष्म रूप से प्रकट किया गया है। यहाँ कहा गया है कि “एताभ्यामेव शक्तिभ्यां बन्धः पुंसः समागतः । याभ्यां विमोहितो देहं मत्वात्मानं भ्रमत्ययम् ॥” अर्थात् केवल दो शक्तियाँ — आवरणशक्ति और विक्षेपशक्ति — ही इस जीव के बन्धन का कारण हैं। यही वे दो महाशक्तियाँ हैं जो माया की मूल शाखाएँ हैं और जिनके प्रभाव से आत्मा अपने स्वस्वरूप को भूलकर देह को ही ‘मैं’ मानने लगता है।
आवरणशक्ति वह है जो ज्ञान को ढँक देती है। जैसे बादल सूर्य को ढँक देते हैं, वैसे ही अज्ञान का यह आवरण आत्मा के तेजस्वी स्वरूप को छिपा देता है। आत्मा सदा शुद्ध, चैतन्यमय और नित्य है, परन्तु जब यह तमोमयी शक्ति उसे आच्छादित कर देती है, तब जीव अपने सत्य स्वरूप से अनभिज्ञ हो जाता है। वह यह नहीं जान पाता कि ‘मैं’ शरीर, मन या इन्द्रिय नहीं हूँ, बल्कि इन सबका साक्षी हूँ। इस प्रकार आवरणशक्ति ज्ञान के प्रकाश को छिपा देती है, जिससे विवेकशक्ति नष्ट हो जाती है और मिथ्या की पहचान नहीं हो पाती।
विक्षेपशक्ति का कार्य आवरण के बाद आरम्भ होता है। जब सत्य स्वरूप ढँक जाता है, तब यह शक्ति नाना प्रकार की भ्रांतियाँ उत्पन्न करती है। जैसे रज्जु को अज्ञानवश सर्प समझ लिया जाता है, उसी प्रकार यह विक्षेपशक्ति आत्मा में अहंकार, काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि का प्रक्षेपण करती है। जीव अपने को शरीर, मन, इन्द्रिय या बुद्धि मान लेता है और बाह्य जगत के विषयों से आसक्त होकर भोगों में लिप्त हो जाता है। यही विक्षेपशक्ति है जो संसार-चक्र को चलाती है और जीव को कर्मों के बन्धन में बाँधती है।
इन दोनों शक्तियों के सम्मिलित प्रभाव से जीव अज्ञानवश ‘मैं देह हूँ’, ‘यह मेरा है’, ‘मैं सुखी हूँ’, ‘मैं दुःखी हूँ’ जैसी असंख्य भ्रांतियों में उलझा रहता है। वह इस मिथ्या देहाभिमान को सत्य मानकर जन्म-मरण के चक्र में घूमता रहता है। जब तक यह भ्रम बना रहता है, तब तक मोक्ष असंभव है, क्योंकि मोक्ष का अर्थ ही है — ‘अहं देह नहीं, मैं शुद्ध चैतन्य आत्मा हूँ’ — इस साक्षात्कार की प्राप्ति।
शंकराचार्य यहाँ यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि बन्धन कोई वस्तुगत चीज़ नहीं है; यह केवल अज्ञान की उपज है। आत्मा कभी बन्धन में नहीं आती, क्योंकि वह नित्य मुक्त है। परन्तु अज्ञानवश जीव स्वयं को देह, मन, बुद्धि आदि से अभिन्न मान लेता है और उसी को अपना स्वरूप समझकर कर्म, भोग और दुःख के जाल में फँस जाता है। जब इस अज्ञान का नाश होता है, तब ज्ञानी पुरुष जान लेता है कि “नाहं देहो न मे देहः, चिदानन्दरूपोऽहम्” — मैं शरीर नहीं हूँ, मैं केवल शुद्ध चेतना हूँ।
अतः इस श्लोक का सार यही है कि जब तक आवरणशक्ति ज्ञान को ढँकती रहेगी और विक्षेपशक्ति भ्रम उत्पन्न करती रहेगी, तब तक जीव संसार में भटकता रहेगा। परन्तु जब गुरु की कृपा, शास्त्रों के अध्ययन और आत्मविचार के द्वारा ये दोनों शक्तियाँ नष्ट हो जाती हैं, तब आत्मा का सच्चा स्वरूप प्रकट होता है — जो न कभी बन्धित हुआ था, न मुक्त होने की आवश्यकता रखता है; वह तो सदा मुक्त, सदा शुद्ध और सदा पूर्ण है। यही आत्म-साक्षात्कार का परम लक्ष्य है, यही अद्वैत का निष्कर्ष है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!