"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 147वां श्लोक"
"बन्ध-निरूपण"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
बीजं संसृतिभूमिजस्य तु तमो देहात्मधीरकुरो रागः पल्लवमम्बु कर्म तु वपुः स्कन्धोऽसवः शाखिकाः । अग्राणीन्द्रियसंहतिश्च विषयाः पुष्पाणि दुःखं फलं नानाकर्मसमुद्भवं बहुविधं भोक्तात्र जीवः खगः ॥ १४७॥
अर्थ:-संसाररूपी वृक्ष का बीज अज्ञान है, देहात्मबुद्धि उसका अंकुर है, राग पत्ते हैं, कर्म जल है, शरीर स्तम्भ (तना) है, प्राण शाखाएँ हैं, इन्द्रियाँ उपशाखाएँ (गुद्दे) हैं, विषय पुष्प हैं और नाना प्रकार के कर्मों से उत्पन्न हुआ दुःख फल है तथा जीवरूपी पक्षी ही इनका भोक्ता है।
शंकराचार्य जी इस श्लोक में अत्यंत सुंदर रूपक के माध्यम से संसार और उसके बन्धन की उत्पत्ति का वर्णन करते हैं। वे बताते हैं कि यह समस्त संसार एक विशाल वृक्ष के समान है, जिसका मूल कारण अज्ञान है। जैसे किसी वृक्ष का अस्तित्व उसके बीज पर आधारित होता है, वैसे ही इस संसाररूपी वृक्ष का मूल बीज ‘अज्ञान’ अर्थात् आत्मा के वास्तविक स्वरूप का न जानना है। जब तक मनुष्य यह नहीं जान पाता कि वह शरीर, मन, बुद्धि या अहंकार नहीं, बल्कि शुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मा है, तब तक यह अज्ञान उसके भीतर जड़ जमा कर रखता है। यही अज्ञान बार-बार जन्म-मरण के चक्र का कारण बनता है।
इस अज्ञान से ‘देहात्मबुद्धि’ अर्थात् ‘मैं शरीर हूँ’ की धारणा अंकुर के रूप में फूटती है। यही पहला भ्रांति का अंकुर है, जिससे सारा संसार उत्पन्न होता है। जब मनुष्य अपने को देह मान लेता है, तब राग-द्वेष, सुख-दुःख, मोह और लोभ जैसे विकार उसके जीवन में प्रवेश कर जाते हैं। इस श्लोक में ‘रागः पल्लवम्’ कहा गया है, अर्थात् राग-पत्रों के समान है। जैसे वृक्ष के पत्ते उसे हरा-भरा बनाते हैं और बढ़ने में सहायक होते हैं, वैसे ही राग मनुष्य को संसार में उलझाए रखता है, उसे बार-बार कर्म करने के लिए प्रेरित करता है।
‘कर्म तु वपुः स्कन्धः’ – यहाँ कर्म को जल और शरीर को वृक्ष का तना बताया गया है। जैसे जल के बिना कोई वृक्ष जीवित नहीं रह सकता, वैसे ही कर्मों के बिना यह संसार नहीं चलता। कर्म ही इस देह को स्थिर और सक्रिय रखते हैं। जब तक कर्म का प्रवाह चलता रहता है, तब तक देह का अस्तित्व बना रहता है। शरीर उस वृक्ष का स्तम्भ है, जो सभी शाखाओं, पत्तों और पुष्पों को सहारा देता है। ‘प्राणाः शाखिकाः’ अर्थात् प्राण इस वृक्ष की शाखाएँ हैं। प्राणशक्ति के बिना शरीर निष्प्राण हो जाता है, अतः यह वृक्ष प्राणों के द्वारा ही जीवंत रहता है।
‘अग्राणीन्द्रियसंहतिः’ – इन्द्रियाँ इस वृक्ष की उपशाखाएँ हैं, जो बाहर की ओर फैलती हैं। ये इन्द्रियाँ विषयों के संपर्क में आती हैं और उसी से संसार का अनुभव उत्पन्न होता है। विषयों को यहाँ ‘पुष्प’ कहा गया है क्योंकि जैसे फूल देखने में आकर्षक लगते हैं परंतु उनमें स्थायी सुख नहीं होता, वैसे ही विषय-सुख भी क्षणिक और मायिक होता है। विषयों के पीछे भागने वाला मनुष्य बाहरी सौंदर्य से मोहित होकर आत्मसुख को भूल जाता है।
अंततः ‘दुःखं फलं’ कहा गया है — यह संसाररूपी वृक्ष नाना प्रकार के कर्मों से उत्पन्न होता है और उसका फल केवल दुःख है। जितना अधिक मनुष्य विषयों में आसक्त होता है, उतना ही अधिक दुःख उसे भोगना पड़ता है। क्योंकि विषयों में सुख की खोज वास्तव में अज्ञान की ही परिणति है। जब तक यह वृक्ष जीव के भीतर दृढ़ रहता है, तब तक वह मुक्त नहीं हो सकता। और इस वृक्ष के फलों का भोक्ता जीव स्वयं है — ‘भोक्तात्र जीवः खगः’। जैसे पक्षी वृक्ष के फलों को खाकर तृप्ति पाता है, वैसे ही जीव कर्मों के फल — सुख और दुःख — भोगता है।
अतः इस श्लोक का गूढ़ अर्थ यह है कि जब तक अज्ञान का बीज हृदय में विद्यमान है, तब तक यह संसाररूपी वृक्ष अपनी शाखाओं और फल-फूलों सहित जीव को बांधे रखता है। केवल आत्मज्ञान ही वह अग्नि है जो इस वृक्ष को जड़ से जला सकती है। जब मनुष्य यह जान लेता है कि “मैं न शरीर हूँ, न मन, न कर्म का कर्ता या भोक्ता, मैं शुद्ध चैतन्य आत्मा हूँ”, तब यह अज्ञान-वृक्ष जड़ से नष्ट हो जाता है और जीव सदा के लिए मुक्त हो जाता है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!