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रविवार, 12 अक्टूबर 2025

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 148वां श्लोक"

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 148वां श्लोक"

"बन्ध-निरूपण"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

अज्ञानमूलोऽयमनात्मबन्धो

नैसर्गिको ऽनादिरनन्त ईरितः ।

जन्माप्ययव्याधिजरादिदुःख- 

प्रवाहपातं जनयत्यमुष्य ॥ १४८ ॥

अर्थ:-यह अज्ञानजनित अनात्म-बन्धन स्वाभाविक तथा अनादि और अनन्त कहा गया है। यही जीव के जन्म, मरण, व्याधि और जरा (वृद्धावस्था) आदि दुःखों का प्रवाह उत्पन्न कर देता है। 

यह श्लोक (विवेकचूडामणि १४८) अत्यंत गूढ़ और सारगर्भित है, जिसमें शंकराचार्यजी ने संसार-बन्धन की मूल जड़—अज्ञान—का रहस्य खोलते हुए बताया है कि जीव का दुःखों से भरा हुआ चक्र इसी अज्ञान से उत्पन्न होता है। शंकराचार्य कहते हैं – “अज्ञानमूलोऽयमनात्मबन्धो नैसर्गिकोऽनादिरनन्त ईरितः।” अर्थात्, यह जो अनात्म-वस्तु में आत्मत्व का बन्धन है, वह अज्ञानमूलक है। यह जीव का स्वाभाविक, अनादि और अनन्त बन्धन है। इस अज्ञान से उत्पन्न मोह के कारण ही जीव अपने सत्य स्वरूप को न पहचानकर शरीर, मन, बुद्धि आदि अनात्म वस्तुओं को “मैं” और “मेरा” मान लेता है। यही भ्रांति संसार के चक्र को जन्म देती है।

“अज्ञानमूल” का अर्थ है – जिसकी जड़ अज्ञान में है। अज्ञान वह आवरण है जो आत्मा के सत्य स्वरूप को ढँक देता है। जैसे सूर्य स्वयं प्रकाशमान है, परंतु बादलों के कारण उसका प्रकाश दृष्टिगत नहीं होता, वैसे ही आत्मा स्वयं चैतन्यस्वरूप है, परन्तु अज्ञानरूपी बादल के कारण जीव उसे अनुभव नहीं कर पाता। यह अज्ञान किसी बाहरी वस्तु से उत्पन्न नहीं होता, बल्कि यही जीव की नैसर्गिक अवस्था है जब वह अपने स्वरूप से विमुख हो जाता है। इसलिए इसे “नैसर्गिक” कहा गया है—यह ऐसा है जो जीव के साथ अनादि काल से जुड़ा है।

शंकराचार्य आगे कहते हैं कि यह बन्धन “अनादि” है—इसका कोई आरम्भ नहीं है। जब से जीव ने अपने को शरीर, मन, और इन्द्रियों से अभिन्न मान लिया, तभी से यह अज्ञान आरम्भ हुआ। वास्तव में, यह कब प्रारंभ हुआ, यह बताना असंभव है, क्योंकि काल का आरम्भ ही इस अज्ञान से सम्बद्ध है। और यह “अनन्त” भी है—अर्थात जब तक ज्ञान का उदय नहीं होता, यह चलता ही रहता है। ज्ञान ही इसका अन्त कर सकता है, क्योंकि अज्ञान का विरोधी केवल ज्ञान ही है। जब आत्मा का साक्षात्कार होता है, तब यह बन्धन, जो कल्पना मात्र था, नष्ट हो जाता है, जैसे रस्सी में सर्प का भ्रान्ति रूपी भय ज्ञान होते ही समाप्त हो जाता है।

श्लोक के अन्तिम भाग में कहा गया है—“जन्माप्ययव्याधिजरादिदुःखप्रवाहपातं जनयत्यमुष्य।” अर्थात् यह अज्ञानजनित बन्धन ही जन्म, मरण, व्याधि, जरा आदि दुःखों के निरन्तर प्रवाह को उत्पन्न करता है। जब जीव अपने को शरीर मान लेता है, तब उसे शरीर के साथ आने वाले सभी परिवर्तन—जन्म, वृद्धि, रोग, जरा और मृत्यु—अनिवार्य रूप से अनुभव करने पड़ते हैं। आत्मा तो न जन्म लेती है, न मरती है, वह सदा अजर, अमर, अविकार है; परंतु अज्ञान के कारण जीव अपने को शरीर मानकर उसी की दशाओं से बँध जाता है। यही कारण है कि संसार में अनन्त दुःख दिखाई देते हैं।

शंकराचार्य यहाँ यह संकेत भी देते हैं कि जब तक अज्ञान बना रहेगा, तब तक यह दुःखों का प्रवाह भी रुकने वाला नहीं है। यह चक्र तभी टूटता है जब ज्ञानप्राप्ति होती है—जब जीव यह प्रत्यक्ष अनुभव कर लेता है कि “मैं न तो शरीर हूँ, न मन हूँ, न इन्द्रियाँ हूँ; मैं तो साक्षी, शुद्ध चैतन्य, निरुपाधिक आत्मा हूँ।” यही बोध मुक्ति का द्वार है। अतः इस श्लोक का सार यही है कि संसार का मूल कारण बाहरी परिस्थितियाँ नहीं, बल्कि स्वयं के स्वरूप का अज्ञान है। जब यह अज्ञान दूर होता है, तब अनात्म-बन्धन टूट जाता है और जीव अपने नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त स्वरूप में स्थित हो जाता है। यही अद्वैत वेदान्त का परम सन्देश है।

!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

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