"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 149वां श्लोक"
"आत्मानात्म-विवेक"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
नास्त्रैर्न शस्त्रैरनिलेन वह्निना छेत्तुं न शक्यो न च कर्मकोटिभिः ।
विवेकविज्ञानमहासिना विना धातुः प्रसादेन सितेन मञ्जुना ॥ १४९ ॥
अर्थ:-यह बन्धन विधाता की विशुद्ध कृपा से प्राप्त हुए विवेक-विज्ञान-रूप शुभ्र और मंजुल महाखड्ग के बिना और किसी अस्त्र, शस्त्र, वायु, अग्नि अथवा करोड़ों कर्मकलापों से भी नहीं काटा जा सकता।
विवेकचूडामणि के इस श्लोक में आदि शंकराचार्य ने जीव के बन्धन और उसके निवारण के वास्तविक साधन का अत्यंत गूढ़ रहस्य स्पष्ट किया है। वे कहते हैं कि यह अज्ञानजनित अनात्म-बन्धन, जो अनादि और अनन्त है, उसे कोई भी बाह्य साधन—चाहे अस्त्र-शस्त्र हो, वायु या अग्नि की शक्ति हो, अथवा करोड़ों कर्मकाण्ड ही क्यों न किए जाएँ—नष्ट नहीं कर सकते। यह बन्धन न तो भौतिक माध्यमों से टूट सकता है, न ही केवल बाहरी साधनों से। इसका कारण यह है कि बन्धन का स्वरूप भौतिक नहीं, अपितु अज्ञानात्मक है। जब तक अज्ञान का नाश नहीं होता, तब तक इस संसार-सागर से मुक्ति सम्भव नहीं है। जिस प्रकार अंधकार को कोई भौतिक अस्त्र नहीं काट सकता, केवल प्रकाश ही उसे दूर कर सकता है, उसी प्रकार आत्मा पर छाया हुआ अज्ञानरूपी आवरण भी केवल ज्ञान के प्रकाश से ही नष्ट होता है।
यह ज्ञान कोई सामान्य बौद्धिक जानकारी नहीं है, बल्कि ‘विवेक-विज्ञान’ है — वह महाज्ञान जो ‘सत्’ और ‘असत्’, ‘आत्मा’ और ‘अनात्मा’ के बीच के सूक्ष्म भेद को प्रत्यक्ष करता है। जब साधक निरन्तर साधना, श्रवण, मनन और निदिध्यासन के द्वारा इस विवेक का विकास करता है, तब उसके अंतःकरण में ज्ञान का तेज प्रकट होता है। यह विवेक-विज्ञान एक ‘महासिन’ अर्थात् तीक्ष्ण खड्ग के समान है, जो अज्ञानरूपी बन्धन को काट डालता है। शंकराचार्य इस खड्ग की तुलना शस्त्रों से इसलिए करते हैं कि जैसे तेज धार वाला शस्त्र किसी वस्तु को भेद देता है, वैसे ही विवेक का ज्ञान जीव को उसकी मिथ्या देहाभिमान और संसारबद्धता से मुक्त कर देता है।
परंतु यह विवेक-विज्ञान भी किसी व्यक्तिगत अहंकार या प्रयास मात्र से प्राप्त नहीं होता। यह केवल ईश्वर या विधाता की ‘प्रसाद’—कृपा—से ही संभव है। जब ईश्वर की कृपा से साधक को उचित गुरु, शास्त्र, और साधना का अवसर मिलता है, तब यह ज्ञान उसके अंतःकरण में प्रकट होता है। बिना ईशकृपा के, केवल कर्म या बाह्य प्रयास से, यह ज्ञान सुलभ नहीं होता। करोड़ों यज्ञ, तप, व्रत या दान करने पर भी यदि मन में अज्ञान का अंधकार बना रहता है, तो मुक्ति नहीं मिल सकती। ज्ञान के बिना किए गए कर्म केवल संसार के चक्र को आगे बढ़ाते हैं; वे मुक्ति के साधन नहीं बनते।
विवेकचूडामणि का यह श्लोक साधक को यह बोध कराता है कि मुक्ति किसी बाहरी या स्थूल साधन से नहीं, बल्कि अंतःकरण की शुद्धि और आत्मबोध से ही संभव है। जब बुद्धि शुद्ध होती है, तब विवेक प्रकट होता है, और जब विवेक प्रकट होता है, तब ज्ञान रूपी खड्ग अज्ञान के मूल को काट देता है। यही ज्ञान आत्मा और अनात्मा के भेद को स्पष्ट करता है, जिससे साधक जान लेता है कि “मैं शरीर, मन, बुद्धि या इन्द्रियाँ नहीं, अपितु साक्षीस्वरूप आत्मा हूँ।” यह बोध ही बन्धन से परम विमोचन है।
अतः शंकराचार्य का संदेश है कि मनुष्य को बाह्य कर्मों या साधनों पर नहीं, बल्कि गुरु-कृपा, ईश्वर-प्रसाद और आत्म-विवेक पर निर्भर होना चाहिए। यह विवेक-विज्ञान ही उस परम मार्ग का दीपक है जो अज्ञान के अंधकार को चीरकर आत्म-साक्षात्कार की ओर ले जाता है। यही सच्चा खड्ग है—न म्लान, न क्षीण, अपितु निर्मल, शुभ्र और मंजुल—जो सदा प्रकाशमान रहकर साधक को मोक्ष की दिशा में अग्रसर करता है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!