"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 150वां श्लोक"
"आत्मानात्म-विवेक"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
श्रुतिप्रमाणैकमतेः निष्ठा स्वधर्म-तयैवात्मविशुद्धिरस्य ।
विशुद्धबुद्धेः तेनैव परमात्मवेदनं संसारसमूलनाशः ॥ १५० ॥
अर्थ:-जिसका श्रुतिप्रामाण्य में दृढ़ निश्चय होता है, उसीकी स्वधर्म में निष्ठा होती है और उसी से उसकी चित्तशुद्धि हो जाती है; जिसका चित्त शुद्ध होता है उसी को परमात्मा का ज्ञान होता है और इस ज्ञान से ही संसार रूपी वृक्ष का समूल नाश होता है।
इस श्लोक में आचार्य शंकर भगवन् ने साधना के क्रम को अत्यंत सूक्ष्म और तात्त्विक रूप में प्रस्तुत किया है। यहाँ आत्म-साक्षात्कार की पूर्ण प्रक्रिया को क्रमबद्ध रूप में बताया गया है — श्रुति में श्रद्धा से लेकर संसार-नाश तक की यात्रा। वे कहते हैं कि जिस साधक का “श्रुतिप्रमाणैकमतेः निष्ठा” — अर्थात् वेदों और उपनिषदों के प्रमाण में अडिग विश्वास होता है, वही वास्तव में आध्यात्मिक मार्ग पर स्थिर रह सकता है। शास्त्रों के वचनों में दृढ़ श्रद्धा ही साधक को भ्रम, संदेह और कुतर्क से बचाती है। जब मनुष्य यह जान लेता है कि वेद ही परम सत्य के प्रत्यक्ष ज्ञान का प्रमाण हैं, तब उसका मन बाह्य तर्क या मतभेदों से विचलित नहीं होता। श्रद्धा और निष्ठा के बिना साधना केवल बौद्धिक व्यायाम बन जाती है।
इसके बाद कहा गया है — “स्वधर्म-तयैवात्मविशुद्धिरस्य।” इसका तात्पर्य यह है कि जब व्यक्ति शास्त्रों के अनुसार अपने स्वधर्म में स्थित रहता है, तब उसका अन्तःकरण शुद्ध होने लगता है। स्वधर्म का अर्थ केवल जाति या समाज-नियत कर्म नहीं है, बल्कि अपने स्वभाव और अपनी योग्यता के अनुसार कर्तव्य का पालन करना है, बिना आसक्ति और फल की इच्छा के। जो व्यक्ति अपने कर्मों को ईश्वरार्पण-बुद्धि से करता है, उसका मन धीरे-धीरे राग-द्वेष से मुक्त हो जाता है। यही चित्तशुद्धि है — मन की वह अवस्था जिसमें विकारों का नाश और आत्मचिन्तन की योग्यता उत्पन्न होती है।
आचार्य कहते हैं — “विशुद्धबुद्धेः तेनैव परमात्मवेदनं।” जब यह चित्त शुद्ध हो जाता है, तब उसी से परमात्मा का साक्षात्कार होता है। क्योंकि परमात्मा तो सर्वदा उपस्थित है, परन्तु अशुद्ध मन ही उसे आवृत कर देता है। जैसे सूर्य सदा प्रकाशित रहता है परन्तु बादल उसकी किरणों को रोक लेते हैं, वैसे ही अज्ञान, वासना और अहंकार के मेघ आत्मज्ञान को छिपा देते हैं। जब ये मेघ हटते हैं, तो आत्मा का स्वप्रकाश अपने आप प्रकट होता है। इसलिए चित्तशुद्धि ही ज्ञान का द्वार है।
“परमात्मवेदनं” का अर्थ है आत्मा का सीधा अनुभव, जो केवल बुद्धि की धारणा नहीं, बल्कि जीव और ब्रह्म के अभेद की साक्षात अनुभूति है। इस अवस्था में ज्ञानी यह जान लेता है कि वह कभी बन्धन में था ही नहीं, केवल अज्ञानवश स्वयं को देह, मन, इन्द्रिय और अहंकार से एक मानता रहा। जब यह मिथ्या अभिमान मिटता है, तो केवल ब्रह्म की अखण्ड सत्ता शेष रहती है।
अंतिम चरण में शंकराचार्य कहते हैं — “संसारसमूलनाशः।” यह आत्मज्ञान ही संसार रूपी वृक्ष का मूल नाश कर देता है। भगवद्गीता (15.3) में भी कहा गया है — “अश्वत्थं एनं सुविरूढमूलं” — यह संसार-वृक्ष अत्यन्त गहराई तक जड़ें फैलाए हुए है, और इसका मूल ही अविद्या है। जब आत्मज्ञान की तीव्र ज्वाला उठती है, तो वह अविद्या रूपी मूल को जला देती है। जब मूल ही नष्ट हो जाता है, तब कर्म, जन्म-मरण, सुख-दुःख, पाप-पुण्य आदि सभी शाखाएँ स्वतः विलीन हो जाती हैं।
इस प्रकार इस एक श्लोक में साधक के सम्पूर्ण पथ का सार निहित है — पहले श्रुति में अटूट श्रद्धा, फिर अपने स्वधर्म में निष्ठा, उससे प्राप्त चित्तशुद्धि, तत्पश्चात् आत्मज्ञान, और अन्त में संसार से पूर्ण मुक्त अवस्था। यही आत्मसाक्षात्कार की परिपूर्ण प्रक्रिया है जिसे आचार्य शंकर ने अत्यन्त गूढ़ परन्तु स्पष्ट रूप में इस श्लोक में संक्षेपित किया है।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!