"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 151वां श्लोक"
"बन्ध-निरूपण"
ॐ !! वंदे गुरु परंपराम् !! ॐ
कोशैरन्नमयाद्यैः पञ्चभिरात्मा न संवृतो भाति।
निजशक्तिसमुत्पन्नैः शैवालपटलैरिवाम्बु वापीस्थम् ॥ १५१ ॥
अर्थ:-अन्नमय आदि पाँच कोशों से आवृत हुआ आत्मा, अपनी ही शक्ति से उत्पन्न हुए शिवाल-पटल से ढंके हुए वापी के जल की भाँति नहीं भासता।
शंकराचार्य द्वारा रचित विवेकचूडामणि के इस श्लोक में आत्मा की अप्रत्यक्षता और उसके आवरणों की व्याख्या अत्यंत सूक्ष्म और दार्शनिक रूप में की गई है। श्लोक कहता है कि – “कोशैरन्नमयाद्यैः पञ्चभिरात्मा न संवृतो भाति, निजशक्तिसमुत्पन्नैः शैवालपटलैरिवाम्बु वापीस्थम्।” अर्थात्, आत्मा पाँच कोशों – अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय – से आवृत होकर स्वयं प्रकट नहीं होता, जैसे किसी जलाशय का जल अपनी ही उत्पन्न शैवाल-पत्तियों से ढँक जाने पर अदृश्य हो जाता है। यह दृष्टान्त अत्यंत सारगर्भित है, जो यह दिखाता है कि आत्मा अपने आप में कभी ढँकता नहीं, बल्कि अपनी ही शक्ति से उत्पन्न आवरणों के कारण अदृश्य प्रतीत होता है।
आदि शंकराचार्य यहाँ आत्मा को वापी (जलाशय) के स्वच्छ जल के समान मानते हैं। जल स्वयं निर्मल, पारदर्शी और शीतल होता है; पर जब उस पर शैवाल (algae) फैल जाते हैं, तो जल न तो दिखाई देता है और न उसकी स्वाभाविक शीतलता अनुभव में आती है। उसी प्रकार आत्मा सर्वव्यापी, चैतन्यमय और नित्य प्रकाशस्वरूप होते हुए भी, अज्ञान से उत्पन्न पाँच कोशों के आवरण से ढँक जाता है। यह आवरण वास्तव में आत्मा के बाहर से नहीं आता, बल्कि आत्मा की ही माया-शक्ति से उत्पन्न होता है। इसीलिए शंकराचार्य कहते हैं – “निजशक्तिसमुत्पन्नैः।” इसका अर्थ है कि जो आवरण आत्मा को छिपाते हैं, वे किसी पराई शक्ति के नहीं, बल्कि आत्मा की ही अंतर्निहित माया या अविद्या-शक्ति के प्रकट रूप हैं।
पाँच कोश – अन्नमय (भौतिक शरीर), प्राणमय (जीवन-ऊर्जा), मनोमय (मन और भावनाएँ), विज्ञानमय (बुद्धि और विवेक) और आनन्दमय (सूक्ष्म सुख का अनुभव) – आत्मा को इस प्रकार आवृत करते हैं कि जीव स्वयं को इन आवरणों में से किसी के रूप में मानने लगता है। मनुष्य अपने शरीर को ‘मैं’ समझता है, अपने विचारों को ‘मैं’ मानता है, और अपनी बुद्धि या अनुभव को ‘स्व’ मान लेता है। इसी भ्रांति से आत्मा का असली स्वरूप — जो निर्लेप, अकर्ता, साक्षी और अनंत है — छिप जाता है। जैसे किसी झील के जल में सूर्य का प्रतिबिंब तभी स्पष्ट दिखाई देता है जब झील निर्मल और स्वच्छ हो; वैसे ही आत्मा का ज्ञान तब प्रकट होता है जब ये पाँचों कोश शुद्ध होकर पारदर्शी बन जाते हैं या विलीन हो जाते हैं।
इन कोशों का कार्य आत्मा को छिपाना है, परंतु वे वास्तव में आत्मा को कभी स्पर्श नहीं करते। जल पर शैवाल का फैलना जल के भीतर कोई विकार नहीं लाता — उसी प्रकार आत्मा पर इन आवरणों का प्रभाव केवल अनुभव के स्तर पर है, आत्मा के सत्य स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं होता। जब साधक विवेक, वैराग्य, शम, दम, और ध्यान आदि साधनों द्वारा इन कोशों का अतिक्रमण करता है, तब वह पाता है कि आत्मा तो सदा से प्रकाशमान है, केवल दृष्टि भ्रम के कारण ही अदृश्य प्रतीत हो रही थी।
इस श्लोक का गूढ़ संदेश यही है कि आत्मा कहीं बाहर खोजने की वस्तु नहीं है; वह तो हमारे भीतर ही सर्वदा विद्यमान है। परंतु जब तक हम उसे शरीर, मन, बुद्धि या सुख के किसी आवरण में पहचानने का प्रयास करते हैं, तब तक वह दृष्टिगोचर नहीं होता। आत्मा के अनुभव के लिए इन आवरणों का क्षय आवश्यक है — और यह क्षय केवल ज्ञान द्वारा संभव है। जब अज्ञान का नाश होता है, तब आत्मा स्वयं अपने प्रकाश से प्रकाशित हो उठता है, जैसे शैवाल हट जाने पर झील का जल स्वच्छ रूप से दिखाई देता है। यही आत्म-साक्षात्कार का क्षण है, जहाँ जीव जान लेता है कि वह कभी ढँका ही नहीं था — केवल माया की छाया ने दृष्टि भ्रम उत्पन्न किया था।
!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!