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गुरुवार, 18 दिसंबर 2025

"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 208वां श्लोक"


"विवेकचूडामणि ग्रंथ का 208वां श्लोक"

ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

आत्मज्ञान ही मुक्ति का उपाय है। 

"श्रीगुरुरुवाच"

अतो नायं परात्मा स्याद्विज्ञानमयशब्दभाक् । विकारित्वाज्ञ्जडत्वाच्च परिच्छिन्नत्वहेतुतः । दृश्यत्वाद्व्यभिचारित्वान्नानित्यो नित्य इष्यते ॥ २०८ ॥

अर्थ:-अतएव विज्ञानमय शब्द से कहा जाने वाला यह विज्ञानमय कोश भी विकारी, जड, परिच्छिन्न तथा दृश्य और व्यभिचारी होने के कारण परात्मा नहीं हो सकता; [ क्योंकि यह अनित्य है] और अनित्य वस्तु कभी नित्य नहीं हो सकती।


विवेकचूडामणि के इस श्लोक में शंकराचार्य जी स्पष्ट करते हैं कि विज्ञानमय कोश—जो बुद्धि या ज्ञान-शक्ति के रूप में जाना जाता है—आत्मा नहीं है। इसका कारण केवल एक नहीं, बल्कि कई ऐसे लक्षण हैं जो इसे अनात्मा की श्रेणी में firmly स्थापित करते हैं। सबसे पहले, विज्ञानमय कोश “विकारी” है। बुद्धि का स्वभाव ही परिवर्तनशील है—कभी निर्णय करती है, कभी संशय में रहती है, कभी सुख का अनुभव कराती है तो कभी दुःख का। जो वस्तु समय, परिस्थिति और अवस्था के अनुसार बदलती रहती है वह नित्य आत्मा नहीं हो सकती, क्योंकि आत्मा का स्वरूप कभी परिवर्तनशील नहीं होता। आत्मा तो सदा एकरस, अखण्ड और अचंचल है। जब बुद्धि में इतनी अप्रतिष्ठित गति है, तो उसे आत्मा मान लेना मूलत: भूल है।

दूसरा कारण इसका “जड़त्व” है। यहाँ शंकराचार्य जी बुद्धि को जड़ कहते हैं—अर्थात उसमें स्वयं कोई चेतना नहीं। बुद्धि प्रकाशित होती है तो केवल आत्मा की चेतना से; स्वयं वह चेतन नहीं है। यह अत्यंत गहन सत्य है। हम सामान्य रूप से बुद्धि को बहुत महान, तेज, विद्वान और ज्ञानवान मानते हैं, परन्तु अद्वैत वेदान्त कहता है कि बुद्धि भी केवल प्रकाश-ग्राही है, प्रकाश-दायी नहीं। आत्मा के प्रकाश से ही बुद्धि विचार करती है, निर्णय लेती है। यदि आत्मा का प्रकाश एक क्षण को भी हट जाए, तो यह विज्ञानमय कोश बिल्कुल अक्षम और मृतवत् हो जाता है। ऐसा जड़, पर-प्रकाशित तत्व परमात्मा कैसे हो सकता है?

तीसरा कारण परिच्छिन्नता है। बुद्धि सीमित है—स्थान, समय और वस्तु के बंधनों में बंधी है। वह केवल एक शरीर-मन के भीतर कार्य करती है। उसके विचारों की सीमा है, उसकी पहुँच सीमित है, उसका स्वरूप भी देह की स्थिति पर निर्भर रहता है। जो परिच्छिन्न और सीमित है, वह अनन्त आत्मा का स्वरूप कभी नहीं हो सकता। आत्मा तो सर्वव्यापी है; उसे सीमाओं में बाँधना वैसा ही है जैसे आकाश को एक घड़े में बंद मान लेना।

चौथा कारण यह है कि विज्ञानमय कोश “दृश्य” है। जो देखा जा सकता है, जो अनुभव का विषय बन सकता है, वह आत्मा नहीं। वेदान्त का स्पष्ट सिद्धांत है—"द्रष्टा कभी दृश्य नहीं होता।” बुद्धि के विचार, निर्णय, संशय, स्मृति—ये सब हमारे अनुभव में आते हैं। हम कहते हैं—“मेरी बुद्धि स्पष्ट नहीं है”, “मेरी समझ बदल गई”, “मेरे विचार उलझ गए।” इसका अर्थ यह है कि बुद्धि हमारा विषय है, और जो विषय है वह हम नहीं। हम वह साक्षी हैं जो बुद्धि के कार्यों को देखता है, न कि वे कार्य स्वयं।

पाँचवाँ कारण व्यभिचारित्व है। बुद्धि का स्वभाव सदा एक-रस नहीं रहता। कभी वह शान्त है, कभी उत्तेजित; कभी सूक्ष्म विचार करती है, कभी स्थूल; कभी सही निर्णय लेती है, कभी गलत। यह अस्थिरता स्पष्ट संकेत देती है कि यह नित्यता से रहित है। जो निरंतर बदलता है, वह सत्-स्वरूप आत्मा नहीं हो सकता, क्योंकि आत्मा का स्वरूप सदा एक-रूप, अप्रवाहित और अचल है।

इन सभी कारणों से शंकराचार्य यह निर्णय देते हैं कि विज्ञानमय कोश अनित्य है—और अनित्य वस्तु को नित्य आत्मा मान लेना गहरी भूल है। आत्मा नित्य, अविकार, चेतन, सर्वव्यापी और सदा-द्रष्टा है; जबकि विज्ञानमय कोश उसका एक आवरण मात्र है, जो साक्षी-चैतन्य के सहारे कार्य करता है। अतः साधक को चाहिए कि वह बुद्धि को आत्मा न माने, बल्कि बुद्धि सहित पंचकोशों का साक्षी बनकर अपने वास्तविक स्वरूप की पहचान करे। यही विवेक का सार है और यही मोक्ष का द्वार खोलने वाली कुंजी है।


!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

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